________________ जैन धर्म एवं दर्शन-96 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-92 और सहज उपासना-विधि है। इस पारम्परिक सम्पर्क के परिणामस्वरूप देश में सन्त परम्परा का विकास हुआ, जिसने हिन्दू-धर्म को कर्मकाण्डों से मुक्त कर एक सहज उपासना-पद्धति प्रदान की। हम देखते हैं कि 14वीं, 15वीं और 16वीं शताब्दी में इस देश में निर्गुण-उपासना-पद्धति का न केवल विकास हुआ, अपितु वह उपासना की एक प्रमुख पद्धति बन गई। ___उस युग में भारतीय-जनमानस कठोर जातिवाद और वर्णवाद से तो ग्रसित था ही, साथ ही धर्म के क्षेत्र में कर्मकाण्ड का प्रभाव इतना हो गया था कि धर्म में से आध्यात्मिक-पक्ष गौण हो गया था और मात्र कर्मकाण्डों की प्रधानता रह गई थी। एक ओर, धर्म का सहज आध्यात्मिक स्वरूप विलुप्त हो रहा था, तो दूसरी ओर, धार्मिक-मतान्धता और सत्ता-बल को पाकर मुस्लिम-शासक देश भर में मन्दिरों, मूर्तियों को तोड़ रहे थे और मन्दिरों की सामग्री से मस्जिदों का निर्माण कर रह थे। इसका परिणाम यह हुआ कि मन्दिरों और मूर्तियों पर से लोगों की आस्था घटने लगी। मन्दिरों और मूर्तियों के विषय में जो महत्त्वपूर्ण किंवदंतियाँ प्रचलित थीं, वे ऑखों के सामने ही धूलधूसरित हो रही थी। मुस्लिम धर्म की सहज और सरल उपासना-पद्धति भारतीय-जनमानस को आकर्षित कर रही थी। इस सबके परिणामस्वरूप भारतीय धर्मों में मूर्तिपूजा और कर्मकाण्ड के प्रति एक विद्रोह की भावना जाग्रत हो रही थी। अनेक सन्त, यथा- कबीर, दादू, नानक, रैदास आदि हिन्दू धर्म में क्रान्ति का शंखनाद कर रहे थे। धर्म के नाम पर प्रचलित कर्मकाण्ड के प्रति लोगों के मन में समर्थन का भाव कम हो रहा था। यही कारण है कि इस काल में भारतीय संस्कृति में अनेक ऐसे महापुरुषों ने जन्म लिया, जिन्होंने धर्म को कर्मकाण्ड से मुक्त कराकर लोगों को एक सरल, सहज और आडम्बरविहीन साधना-पद्धति दी। __ जैन-धर्म भी इस प्रभाव से अछूता नहीं रह सका। गुप्तकाल में जैन धर्म में चैत्यवास के प्रारम्भ के साथ-साथ कर्मकाण्ड की प्रमुखता बढ़ती गई थी। कर्मकाण्डों के शिकंजे में धर्म की मूल आत्मा मर चुकी थी। धर्म पंडों और पुरोहितों द्वारा शोषण का माध्यम बन गया था। सामान्य जनमानस खर्चीले, आडम्बरपूर्ण आध्यात्मिकता से शून्य कर्मकाण्ड को