________________ जैनधर्म एवं दर्शन-51 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-47 कि मुक्ति का अधिकार केवल उसके आचार-नियमों का पालन करने वाले को ही नहीं है, अपितु भिन्न आचार-मार्ग का पालन करने वाला भी मुक्ति का अधिकारी हो सकता है, शर्त केवल एक ही है, उसका चित्त विषय-वासनाओं एवं राग-द्वेष से रहित और समता-भाव से वासित हो। इसी सन्दर्भ में यहाँ 'ऋषिभाषित' (इसिभासियाई) का उल्लेख करना भी आवश्यक है, जो जैन आगम-साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ (ई.पू. चौथी शती) है। जैन–परम्परा में इस ग्रन्थ का निर्माण उस समय हुआ होगा, जब जैनधर्म एक सम्प्रदाय के रूप में विकसित नहीं हुआ था। इस ग्रन्थ में नारद, असितदेवल, अंगिरस, पाराशर, अरुण, नारायण, याज्ञवल्क्य, उद्दालक, विदुर, सारिपुत्त, महाकश्यप मंखलिगोशाला, संजय (वेलिठ्ठिपुत्त) आदि पैंतालिस ऋषियों का उल्लेख है और इन सभी को अर्हत्-ऋषि, बुद्ध-ऋषि या ब्राह्मण-ऋषि कहा गया है। 'ऋषिभाषित' में इनके आध्यात्मिक और नैतिक उपदेशों का संकलन है। जैन-परम्परा में इस ग्रंथ की रचना इस तथ्य का स्पष्ट संकेत है कि औपनिषिदिक- ऋषियों की परम्परा और जैन-परम्परा का उद्गम-स्रोत एक ही है। यह ग्रन्थ न केवल जैनधर्म की धार्मिक-उदारता का सूचक है, अपितु यह भी बताता है कि सभी भारतीय-आध्यात्मिक-परम्पराओं का मूल स्रोत एक ही है। औपनिषिदिक, बौद्ध, जैन, आजीवक, सांख्य, योग आदि सभी उसी मूल स्रोत से निकली हुई धाराएँ हैं। जिस प्रकार जैनधर्म के 'ऋषिभाषित' में विभिन्न परम्पराओं के ऋषियों के उपदेश संकलित हैं, उसी प्रकार बौद्ध-परम्परा की 'थेरगाथा' में भी विभिन्न परम्पराओं के स्थविरों के उपदेश संकलित हैं। उसमें भी अनेक औपनिषिदिक एवं अन्य श्रमणपरम्परा के आचार्यों के उल्लेख हैं, जिनमें एक वर्धमान (महावीर) भी हैं। ये सभी उल्लेख इस तथ्य के सूचक हैं कि भारतीय-चिन्तनधारा प्राचीनकाल से ही उदार और सहिष्णु रही है और उसकी प्रत्येक धारा में यही उदारता और सहिष्णुता प्रवाहित होती रही है। आज जब हम साम्प्रदायिकअभिनिवेशों में जकड़कर परस्पर संघर्षों में उलझ गये हैं, इन धाराओं का तुलनात्मक अध्ययन हमें एक नयी दृष्टि प्रदान कर सकता है। यदि भारतीय-सांस्कृतिक-चिन्तन की इन धाराओं को एक-दूसरे से अलग