Book Title: Jain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 78
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-76 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-72 है। यद्यपि पुराणकार ने शूद्रों को एकशाटकव्रत अर्थात् क्षुल्लकदीक्षा का अधिकार मान्य किया था किन्तु बाद के दिगम्बर जैन आचार्यों ने उसमें भी कमी कर दी और शूद्र की मुनि-दीक्षा एक जिनमन्दिर में प्रवेश का भी निषेध कर दिया। श्वेताम्बर परम्परा में स्थानांग' (3/202) के मूलपाठ में तो केवल रोगी, भयार्त और नपुसंक की मुनि-दीक्षा का निषेध था, किन्तु परवर्ती टीकाकारों ने चाण्डालादि जाति-जुंगित और व्याघादि कर्मजुंगित लोगों को दीक्षा देने का निषेध कर दिया / यद्यपि यह सब जैनधर्म की मूल परम्परा के तो विरुद्ध ही था, फिर भी हिन्दू-परम्परा के प्रभाव से इसे मान्य कर लिया गया। स्थिति यहाँ तक पहुंची कि एक ही जैन धर्म के अनुयायी जातीय-भेद के आधार पर दूसरी जाति का छुआ हुआ खाने में, उन्हें साथ बिठाकर भोजन करने में आपत्ति करने लगे। शूद्र-जल का त्याग एक आवश्यक कर्तव्य हो गया और शूद्रों का जिन-मंदिर में प्रवेश निषिद्ध कर दिया गया। श्वेताम्बर शाखा की एक परम्परा में केवल ओसवाल को आचार्यपद देने की अवधारणा विकसित हो गई। __इसी प्रकार, जहाँ प्राचीन स्तर की जैन-परम्परा की चारों ही वर्णों और सभी जातियों के व्यक्ति जिन पूजा करने, श्रावकधर्म एवं मुनिधर्म का पालन करने और साधना के सर्वोच्च लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त करने के अधिकारी माने गये थे, वहीं सातवीं-आठवीं शती में जिनसेन ने सर्वप्रथम शूद्र को मुनि दीक्षा और मोक्ष प्राप्ति हेतुं अयोग्य माना। श्वेताम्बर आगमों में कहीं शूद्र की दीक्षा का निषेध नहीं है, 'स्थानांग' में मात्र रोगी, भयार्त और नपुंसक की दीक्षा का निषेध है, किन्तु आगे चलकर उनमें भी जाति-जंगित जैसे- चाण्डाल आदि और कर्म-जुंगित जैसे-कसाई आदि की दीक्षा का निषेध कर दिया गया, किन्तु यह बृहतर हिन्दू-परम्परा का प्रभाव ही था, जो कि जैनधर्म के मूल सिद्धान्त के विरुद्ध था। जैनों ने इसे केवल अपनी सामाजिक–प्रतिष्ठा को बनाए रखने हेतु मान्य किया, क्योंकि आगमों में हरिकेशबल, मेतार्य, मातंगमुनि आदि अनेक चाण्डालों के मुनि होने और मोक्ष प्राप्त करने के उल्लेख हैं।

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