Book Title: Jain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 63
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-61 . जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-57 अस्तित्व में आया है। अशोक (ई.पू. तृतीय शताब्दी), खारवेल (ई.पू. द्वितीय शताब्दी) आदि के शिलालेखों में जैनधर्म का उल्लेख निर्ग्रन्थ-संघ के रूप में ही हुआ है। पार्श्व एवं महावीर की परम्परा 'ऋषिभाषित', 'उत्तराध्ययन', 'सूत्रकृतांग' आदि से ज्ञात होता है कि पहले निर्ग्रन्थ धर्म में नमि, बाहुक, कपिल, नारायण (तारायण), अंगिरस, भारद्वाज, नारद आदि ऋषियों को भी, जो कि वस्तुतः उसकी परम्परा के नहीं थे, अत्यन्त सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त था। पार्श्व और महावीर के समान इन्हें भी अर्हत् कहा गया था, किन्तु जब निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय पार्श्व और महावीर के प्रति केन्द्रित होने लगा, तो इन्हें प्रत्येक-बुद्ध के रूप में सम्मानजनक स्थान तो दिया गया, किन्तु अपरोक्ष रूप से अपनी परम्परा से पृथक् मान लिया गया। इस प्रकार, हम देखते हैं कि ई.पू. पाँचवीं शती में निर्ग्रन्थ संघ पार्श्व और महावीर की परम्परा तक सीमित हो गया। यहाँ यह भी स्मरण रखना होगा कि प्रारंभ में महावीर और पार्श्व की परम्पराएँ भी पृथक्-पृथक् ही थीं। यद्यपि उत्तराध्ययन एवं भगवती की सूचनानुसार महावीर के जीवनकाल में ही. पार्श्व की परम्परा के कुछ श्रमण उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हो. उनके संघ में सम्मिलित हुए थे, किन्तु महावीर के जीवन काल में महावीर और पार्श्व की परम्पराएँ पूर्णतः एकीकृत नहीं हो सकीं। 'उत्तराध्यन' में प्राप्त उल्लेख से ऐसा लगता है कि महावीर के निर्वाण के पश्चात् ही श्रावस्ती में महावीर के प्रधान शिष्य गौतम और पार्श्वपत्य-परम्परा के तत्कालीन आचार्य केशी ने परस्पर मिलकर दोनों संघों के एकीकरण की भूमिका तैयार की थी। यद्यपि आज हमारे पास ऐसा कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है, जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि पार्श्व की परम्परा पूर्णतः महावीर की परम्परा में विलीन हो गयी थी, फिर भी इतना निश्चित है कि पार्श्वपत्यों का एक बड़ा भाग महावीर की परम्परा में सम्मिलित हो गया था और महावीर की परम्परा ने पार्श्व को अपनी ही परम्परा के पूर्व-पुरुष के रूप में मान्य कर लिया था। पार्श्व के लिए 'पुरुषादानीय' शब्द का प्रयोग इसका प्रमाण है। कालान्तर में ऋषभ,

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