________________ जैन धर्म एवं दर्शन-52 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-48 कर देखने का प्रयत्न किया जायगा, तो हम उन्हें सम्यक रूप से समझने में सफल नहीं हो सकेंगे। जिस प्रकार 'उत्तराध्ययन', 'सूत्रकृतांग', 'ऋषिभाषित' और 'आचारांग' को समझने के लिए औपनिषिदिक-साहित्य का अध्ययन आवश्यक है, उसी प्रकार उपनिषदों और बौद्ध-साहित्य को भी जैन-परम्परा के अध्ययन के अभाव में सम्यक् प्रकार से नहीं समझा. जा सकता है। आज साम्प्रदायिक-अभिनिवेशों से ऊपर तटस्थ एवं तुलनात्मक रूप से सत्य का अन्वेषण ही एक ऐसा विकल्प है, जो साम्प्रदायिक-अभिनिवेश से ग्रस्त मानव को मुक्ति दिला सकता है और भारतीय-धर्मों की पारस्परिक-प्रभावशीलता को स्पष्ट कर सकता है। जैनधर्म का वैदिकधर्म को अवदान . औपनिषिदिक-काल या महावीर-युग की सबसे प्रमुख समस्या यह थी कि उस युग में अनेक परम्पराएँ अपने एकांगी दृष्टिकोण को ही पूर्ण सत्य समझकर परस्पर एक-दूसरे के विरोध में खड़ी थीं। उस युग में चार प्रमुख, वर्ग थे- 1. क्रियावादी, 2. अक्रियावादी, 3. विन' वादी और 4. अज्ञानवादी। महावीर ने सर्वप्रथम उनमें समन्वय करने का प्रयास किया। प्रथम क्रियावादी-दृष्टिकोण आचार के बाह्य-पक्षों पर अधिक बल देता था। वह कर्मकाण्डपरक था। बौद्ध-परम्परा में इस धारणा को शीलव्रतपरामर्श कहा गया है। दूसरा अक्रियावाद था। अक्रियावाद के तात्त्विक आधार या तो विभिन्न नियतिवादी-दृष्टिकोण थे या आत्मा को कूटस्थ एवं अकर्ता मानने की दार्शनिक अवधारणा के पोषक थे। ये परम्पराएँ ज्ञानमार्ग की प्रतिपादक थीं। जहाँ क्रियावाद के अनुसार कर्म या आचरण ही साधना का सर्वस्व था, वहाँ अक्रियावाद के अनुसार ज्ञान ही साधना का सर्वस्व था। क्रियावाद कर्ममार्ग का प्रतिपादक था और अक्रियावाद ज्ञानमार्ग का प्रतिपादक / कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग के अतिरिक्त तीसरी परम्परा अज्ञानवादियों की थी, जो अतीन्द्रिय एवं पारलौकिक-मान्यताओं को 'अज्ञेय' स्वीकार करती थी। इसका दर्शन रहस्यवाद और सन्देहवाद- इन दो रूपों में विभाजित था। इन तीनों परम्पराओं के अतिरिक्त चौथी परम्परा विनयवाद की थी, जिसे भक्तिमार्ग का प्रारम्भिक रूप माना जाता है। विनयवाद