________________ जैन धर्म एवं दर्शन-46 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-42 मात्र उसे मुखर ही किया है। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि वैदिक-कर्मकाण्ड के प्रति यदि किसी ने पहली आवाज उठाई, तो वे औपनिषिदिक-ऋषि ही थे। उन्होंने ही सबसे पहले कहा था कि ये यज्ञरूपी नौकाएँ अदृढ़ हैं, ये आत्मा के विकास में सक्षम नहीं है। यज्ञ आदि वैदिक- कर्मकाण्डों की नवीन आध्यात्मिक-दृष्टि से व्याख्या करने का कार्य औपनिषिदिक-ऋषियों और गीता के प्रवक्ता का है। महावीर एवं बुद्धकालीन जैन और बौद्ध-परम्पराएँ तो औपनिषिदिक-ऋषियों के द्वारा प्रशस्त किये गए पथ पर गतिशील हुई हैं। वे वैदिक-कर्मकाण्ड, जन्मना जातिवाद और मिथ्या विश्वासों के विरोध में उठे हए औपनिषिदिक-ऋषियों के स्वर के ही मुखरित रूप हैं / जैन और बौद्ध परम्पराओं में औपनिषिदिक-ऋषियों की अर्हत्-ऋषियों के रूप में स्वीकृति इसका स्पष्ट प्रमाण है। यह सत्य है कि श्रमणों ने यज्ञों में पशुबलि, जन्मना वर्ण-व्यवस्था और वेदों के प्रामाण्य से इन्कार किया और इस प्रकार वे भारतीय संस्कृति के समुद्धारक के रूप में ही सामने आये, किन्तु हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि भारतीय संस्कृति में आई इन विकृतियों के परिमार्जन करने की प्रक्रिया में वे स्वयं ही कहीं-न-कहीं उन विकृतियों से प्रभावित हो गए हैं। वैदिक कर्मकाण्ड अब पूजा-विधानों एवं तन्त्र-साधना के नये रूप में बौद्ध, जैन और अन्य श्रमण-परम्पराओं में प्रविष्ट हो गया है और उनकी साधना-पद्धति का एक अंग बन गया है। आध्यात्मिक-विशुद्धि के लिये किये जाने वाला ध्यान अब भौतिक-सिद्धियों के निमित्त किया जाने लगा है। जहाँ एक ओर भारतीय श्रमण-परम्परा ने वैदिक परम्परा को आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि के साथ-साथ तप, त्याग, संन्यास और मोक्ष की अवधारणाएँ प्रदान की, वहीं दूसरी ओर तीसरी-चौथी शती से वैदिक परम्परा के प्रभाव से पूजा-विधान और तान्त्रिक-साधनाएँ जैन और बौद्ध परम्पराओं में प्रविष्टि हो गई। अनेक हिन्दू देव-देवियाँ प्रकारान्तर में जैनधर्म एवं बौद्धधर्म में स्वीकार कर लिए गए। जैनधर्म में यक्ष-यक्षणियों एवं शासन-देवता की अवधारणाएँ हिन्दू-देवताओं का जैनीकरण मात्र हैं। अनेक हिन्दू-देवियों, जैसे- काली, महाकाली, ज्वालामालिनी अम्बिका, चक्रेश्वरी, पद्मावती,