________________ जैन धर्म एवं दर्शन-42 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-38 . इसी प्रकार, कालान्तर में श्रमणधारा ने भी चाहे-अनचाहे वैदिकधारा से बहुत कुछ ग्रहण किया है। श्रमणधारा में कर्मकाण्ड और पूजा-पद्धति तो वैदिकधारा से आयी ही हैं, अपितु अनेक हिन्दू देवी-देवता भी श्रमण-परम्परा में मान्य कर लिये गए हैं। भारतीय संस्कृति की ये विभिन्न धाराएँ किस रूप में एक-दूसरे से समन्वित हुई है, इसकी चर्चा करने के पूर्व हमें यह ध्यान रखना होगा कि इन दोनों धाराओं का स्वतन्त्र विकास किन मनौवैज्ञानिक और पारिस्थितिक-कारणों से हुआ है तथा कालक्रम में क्यों और कैसे इनका परस्पर संमन्वय आवश्यक हुआ। श्रमण एवं वैदिक संस्कृतियों के समन्वय की यात्रा यद्यपि पूर्व में हमने प्रवर्तक धर्म अर्थात् वैदिक परम्परा और निवर्तक-धर्म अर्थात् श्रमण-परम्परा की मूलभूत विशेषताओं और उनके सांस्कृतिक एवं : दार्शनिक-प्रदेयों को समझा है, किन्तु यह मानना भ्रान्तिपूर्ण ही होगा कि आज वैदिकधारा और श्रमणधारा ने अपने इस मूल स्वरूप को बनाए रखा है। एक ही देश और परिवेश में रहकर दोनों ही धाराओं के लिये असम्भव था कि वे एक-दूसरे के प्रभाव से अछूती रहें, अतः जहाँ वैदिकधारा में श्रमणधारा (निवर्त्तक धर्म-परम्परा) के तत्त्वों का प्रवेश हुआ है, वहाँ श्रमणधारा में प्रवर्तक धर्म परम्परा के तत्त्वों का प्रवेश भी हुआ है, अतः आज के युग में कोई धर्म-परम्परा न तो ऐकान्तिक निवृत्तिमार्ग की पोषक है और न ऐकान्तिक-प्रवृत्तिमार्ग की। . ___ वस्तुतः, निवृत्ति और प्रवृत्ति के सम्बन्ध में ऐकान्तिक-दृष्टिकोण न तो व्यावहारिक है और न मनोवैज्ञानिक / मनुष्य जब तक मनुष्य है, मानवीयआत्मा जब तक शरीर के साथ योजित होकर सामाजिक-जीवन जीती है, तब तक ऐकान्तिक-प्रवृत्ति और ऐकान्तिक निवृत्ति की बात करना एक मृग-मरीचिका में जीना होगा। वस्तुतः, आवश्यकता इस बात की रही है कि हम वास्तविकता को समझें और प्रवृत्ति एवं निवृत्ति के तत्त्वों में समुचित समन्वय से एक ऐसी जीवन शैली खोजें, जो व्यक्ति और समाज-दोनों के लिये कल्याणकारी हो और मानव को तृष्णाजनिक मानसिक एवं सामाजिक-सन्त्रास से मुक्ति दिला सके। इस प्रकार, इन दो भिन्न