________________ जैन धर्म एवं दर्शन-43 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-39 संस्कृतियों में पारस्परिक समन्वय आवश्यक था। जैनधर्म में इसी प्रयास में मुनिधर्म के साथ-साथ गृहस्थधर्म का भी प्रतिपादन हुआ और उसे विरताविरत अर्थात् आंशिक रूप से निवृत्त और आंशिक रूप से प्रवृत्त कहा गया। भारत में प्राचीन काल से ही ऐसे प्रयत्न होते रहे हैं। प्रवर्तकधारा के प्रतिनिधि हिन्दूधर्म में समन्वय के सबसे अच्छे उदाहरण 'ईशावास्योपनिषद् और भगवद्गीता' हैं। इन दोनों ग्रंथों में प्रवृत्ति और निवृत्तिमार्ग के समन्वय का स्तुत्य प्रयास हुआ है। श्रमण-परम्परा की एक अन्य धारा के रूप में विकसित बौद्धधर्म में तो प्रवर्तक-धारा के तत्त्वों का इतना अधिक प्रवेश हुआ कि महायान से तन्त्रयान की यात्रा तक वह अपने मूल स्वरूप से काफी दूर हो गया। भारतीय-धर्मों के ऐतिहासिक विकास-क्रम में हम कालक्रम में हुए आदान-प्रदान की उपेक्षा नहीं कर सकते हैं। इसी आदान-प्रदान के कारण ये परम्पराएँ एक-दूसरे के काफी निकट आ गई। वस्तुतः, भारतीय संस्कृति एक संश्लिष्ट संस्कृति है। उसे हम विभिन्न चारदीवारियों में अवरुद्ध कर कभी भी सम्यक् प्रकार से नहीं समझ सकते हैं, उसको खण्ड-खण्ड में विभाजित करके देखने में उसकी आत्मा ही मर जाती है। जैसे शरीर को खण्ड-खण्ड कर देखने से शरीर की क्रिया-शक्ति को नहीं समझा जा सकता है, वैसे ही भारतीय संस्कृति को खण्ड-खण्ड करके उसकी मूल आत्मा को नहीं समझा जा सकता है। भारतीय संस्कृति को हम तभी सम्पूर्ण समझ सकते हैं, जब तक कि उसके विभिन्न घटकों अर्थात् जैन, बौद्ध और हिन्दू-धर्म-दर्शन का समन्वित एवं सम्यक् अध्ययन न कर लें। बिना उसके संयोजित घटकों के ज्ञान के उसका सम्पूर्णता में ज्ञान सम्भव ही नहीं है। एक इंजन की प्रक्रिया को भी सम्यक् प्रकार से समझने के लिये न केवल उसके विभिन्न घटकों का अर्थात् कल-पुर्जी का ज्ञान आवश्यक होता है, अपितु उनके परस्पर संयोजित रूप को भी देखना होता है, अतः हमें स्पष्ट रूप से इस तथ्य को समझ लेना चाहिये कि भारतीय-संस्कृति के अध्ययन एवं शोध के क्षेत्र में अन्य सहवर्ती परम्पराओं और उनके पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन एवं शोध के क्षेत्र में अन्य