Book Title: Jain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 27
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-25 . जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-21 मनोभावों और प्रवृत्तियों का द्रष्टा है। मनुष्य की मनुष्यता और धार्मिकता इसी बात में है कि वह सदैव अपने आचार और विचार के प्रति सजग रहे। प्रत्येक क्रिया के प्रति हमारी चेतना सजग होनी चाहिए। खाते समय खाने की चेतना और चलते समय चलने की चेतना, क्रोध में क्रोध की चेतना और काम में काम की चेतना बनी रहना आवश्यक है। आप जो भी कर रहे हैं उसके प्रति यदि आप पूरी तरह आत्मचेतन हैं तो ही आप सही अर्थ में धार्मिक हैं। जिसे हम सम्यक् - दर्शन कहते हैं मेरी धारणा में उसका अर्थ यही आत्मदर्शन या आत्मजागृति अथवा द्रष्टा एवं साक्षी-भाव की स्थिति है। आत्मचेतन या अप्रमत्त या आत्मद्रष्टां होने का मतलब है खुद के अंदर झांकना, अपनी वृत्तियों, अपने विचारों एवं अपनी भावनाओं को देखना। सरल शब्दों में कहें तो जो अपने मन के नाटक को देखता है वही आत्मद्रष्टा या आत्मचेतन है। जो अपने कर्मों के प्रति, अपने विचारों के प्रति साक्षी या द्रष्टा नहीं बन सकता वह धार्मिक भी नहीं बन सकता है। भगवान् बुद्ध ने इसी आत्मचेतनता को स्मृति के रूप में पारिभाषित किया है। सम्यक् - स्मृति बौद्ध धर्म के साधनामार्ग का एक महत्वपूर्ण चरण है। भगवान् बुद्ध ने साधकों को बार-बार यह निर्देश दिया है कि अपनी स्मृति को सदैव जागृत बनाए रखो। धम्मपद में वे कहते हैं- अपमादो अमत पदंपमादो मचुनो पदं' अर्थात् अप्रमाद ही अमृत पद है, अमरता का मार्ग है और प्रमाद मृत्यु का। स्मृतिवान होना, सजग, अप्रमत्त होना यहधर्म और धार्मिकता की आवश्यक कसौटी है। आचारांग में भगवान् महावीर ने एक बहुत ही सुंदर बार कही है - 'सुत्ता अमुणी, मुणिणो सया जागरन्ति' अर्थात् जो सोया हुआ है, सजग या आत्मचेतन नहीं है वह अमुनि है और जो सजग है, जागृत है, आत्मचेतन है वह मुनि है। मनुष्य की यह विशेषता है कि वह अपने प्रति सजग या आत्मचेतन रह सकता है, अपने अंदर झांक सकता है, चेतना में स्थित विषय वासना रूपी गंदगी को देख सकता है। आत्मद्रष्टा या आत्मचेतन होने का मतलब यही है कि हम अपने में निहित या उत्पन्न होने वाली वासनाओं, भावावेशों, विषय-विकारों, राग-द्वेष की वृत्तियों एवं क्रोध, मान, माया,

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