Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 13
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - 17/11 करने लगे कि “जगत में दो ही पदार्थ हैं। एक दैव और दूसरा पुरुषार्थ । उनमें से जगत में तो दैव ही बलवान है; क्योंकि वह स्वयं उपार्जित किया हुआ है। और पुरुषार्थ तो पर में चलता नहीं है, अतः जो पुरुषार्थ का गर्व करता है उसको धिक्कार है। यदि पुरुषार्थ ही बलवान होता तो नग्गी तलवार सहित मेरे और बलदेव के होते हुए मेरे पुत्र को शत्रु कैसे ले जा सकता था ? " इत्यादि विचार करके फिर श्रीकृष्ण रुक्मणी से कहते हैं कि हे प्रिये ! तू शोक न कर, धैर्य धारण कर। वह पुत्र स्वर्ग लोक से आया है, पुण्य का अधिकारी है, अतः अल्पायु वाला नहीं हो सकता। मेरे समान पिता और तुम्हारे समान माता का पुत्र हीनपुण्य और अल्पायु वाला नहीं हो सकता। यह कोई ऐसा भविष्य होगा । ऐसे अनेक जीव अपहृत होकर वापस आते हैं। तेरा पुत्र लोगों के नेत्रों के उत्सव का कर्त्ता है, उसे मैं कहीं से भी खोजकर लाऊँगा । इसप्रकार रुक्मणी को धैर्य बंधाकर श्रीकृष्ण पुत्र की खोज के उपाय पर विचार कर ही रहे थे कि उसी समय नारदजी आते हैं और रुक्मणी के पुत्र के गुम हो जाने के समाचार सुनकर उनके प्रति सांत्वना व्यक्त करते हुए रुक्मणी से कहते हैं कि पुत्री तू शोक मत कर, मैं शीघ्र तेरे पुत्र के सब समाचार लेकर आता हूँ। अभी इस क्षेत्र में अतिमुक्त नामक मुनि अवधिज्ञानी थे, सो वे तो केवलज्ञान प्राप्तकर निर्वाण को प्राप्त हुए हैं। और तीन ज्ञान के धनी भावी तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ अभी गृहस्थ दशा में हैं; परन्तु वे अपने अवधिज्ञान का उपयोग नहीं करते। इसलिए मैं विदेहक्षेत्र जाकर श्री तीर्थंकर भगवान सीमन्धर स्वामी से पूछकर शीघ्र तुम्हारे पुत्र के समाचार लाता हूँ। इसप्रकार रुक्मणी को सन्तोष उत्पन्न कराकर नारद श्री सीमन्धर भगवान के समवसरण में जाकर भगवान को नमस्कार करके बैठ गये। तब वहाँ के पद्ममरथ चक्रवर्ती ने पूछा कि हे भगवन् ! यह पुरुषाकार जीव किस जाति का है ? भगवान की ॐध्वनि में आया कि यह जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र का नौंवा नारद है । वासुदेव कृष्ण का मित्र है । चक्रवर्ती ने पुन: पूछा कि प्रभो ! नारद यहाँ किसलिये आये हैं ? तब भगवान भी निरक्षरी दिव्यध्वनि द्वारा चक्रवर्ती

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