Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 45
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/43 कि यह किस प्रकार का नाटक ? तब दासी ने रोहिणी का भोलापन देखकर कहा कि पुत्री ! यह नाटक नहीं, परन्तु कुछ दुःखी जीव दुःख और शोक मना रहे हैं। तब रोहिणी फिर पूछती है कि दुःख और शोक क्या वस्तु है? रोहिणी का ऐसा प्रश्न सुनकर गुस्से में आकर एक बुजुर्ग व गम्भीर दासी बोली कि हे सुन्दरी ! तुम्हें उन्माद हुआ है। पाण्डित्य और ऐश्वर्य ऐसा ही होता है। और क्या तुम्हें लोकातिशयी सौभाग्य है जिससे कि तुम दुःख और शोक को नहीं जानती और स्वर व भाषा को अलंकृत कर नाटक-नाटक बक रही हो। क्या तुम इस क्षण ही जन्मी हो? .. दासी बसन्ततिलका की क्रोध पूर्ण बात सुनकर रोहिणी कहने लगी कि हे भद्रे ! तू मेरे ऊपर क्रोध न कर, मेरे लिये आज भी यह प्रसंग अदृष्ट और अश्रुत है – इस कारण मैंने तुझसे प्रश्न किया है, इसमें अहंकार की कोई बात नहीं है। तब दासी कहती है कि हे वत्स यह नाटक, प्रयोग अथवा संगीत स्वर नहीं है; परन्तु इष्ट बंधु की मृत्यु से रोने वाले को जो दुःख होता है, उसे शोक कहते हैं। रोहिणी फिर से पूछती है कि हे भद्रे ! मैं रुदन का अर्थ भी नहीं जानती, अतः रुदन का क्या अर्थ है - यह बताओ? . रोहिणी का यह प्रश्न पूरा होते ही राजा अशोक ने कहा कि 'शोक से जो रुदन होता है उसका अर्थ मैं तुझे बताता हूँ' – ऐसा कहकर उसने छोटे लोकपाल कुमार को रोहिणी के हाथ से खींचकर छत के ऊपर से नीचे डाल दिया, तब रोहिणी को बहुत ही दुःख और शोक हुआ।कुमार लोकपाल को तो देवियों ने आकर फूल की तरह झेल लिया और अभिषेक आदि से लोकपाल का सन्मान करके देवियाँ चली गईं। एक समय हस्तिनापुर में रूपकुमम और स्वर्णकुमम नाम के दो चारण ऋद्धिधारी मुनियों के पधारने पर वनपाल ने राजा को मुनियों के पधारने के समाचार दिये। इससे राजा बहुत ही प्रसन्न हुआ और उसने परिवार सहित वन में जाकर भक्ति पूर्वक मुनिराज की वन्दना करके अवधिज्ञानी रूपकुमम

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