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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/80 से प्रभु की स्तुति की तथा पाँच सौ सदस्यों और दोनों भाईयों के साथ जैनेश्वरी दीक्षा अंगीकार की। वीरनाथ भगवान के समवसरण में चार ज्ञान से सुशोभित ऐसे इन्द्रभूति गौतम, अग्निभूति, वायुभूति आदि ग्यारह गणधर हुए और वीरनाथ की दिव्यध्वनि खिरने लगी।
तपश्चरण करते-करते एक दिन मुनिराज गौतम स्वामी को निश्चल ध्यान अवस्था में कार्तिक कृष्ण अमावस्या के सायंकाल चार घातिया कर्मों के क्षय पूर्वक केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। तब उनकी दिव्यध्वनि के माध्यम से भव्यजीवों को मुक्तिमार्ग का पुनः लाभ मिलने लगा, क्योंकि आज ही के दिन वीर प्रभु महावीर स्वामी को निर्वाण की प्राप्ति हुई थी। कुछ काल पश्चात् गौतम स्वामी के चार अघातिया कर्मों का क्षय होने पर उन्हें अनन्त अव्याबाध सुख स्वरूप सिद्ध दशा की प्राप्ति हुई।
अहो ! गौतम स्वामी का जीव पहले विश्वलोचन महाराज की पटरानी होकर दुराचारी, विषय लंपटी, मांसभक्षी, मुनिनिंदक, मुनिहिंसक, घोर
रौद्रध्यानी, नरकगामी हुआ और नरक से निकलकर, बिल्ली, सूअरी, कुत्ती, मुर्गी और कानी, लंगड़ी, कुबड़ी क्षुद्र कन्या के रूप में जन्मा और मुनिराज के दर्शन और उपदेश से सम्यक्त्वपूर्वक व्रतादि धारण कर समाधिमरण पूर्वक स्त्रीलिंग का छेद करके पाँचवें स्वर्ग में उत्तम देव हुआ और वहाँ से आकर ब्राह्मण कुल में पैदा होकर वेद वेदान्त में पारंगत हुआ और इन्द्र के द्वारा समवसरण में गया और मानस्तम्भ को देखकर मान गलित हुआ तथा दीक्षा अंगीकार की और चार ज्ञान प्रकट करके अन्तर्मुहूर्त में बारह अंग चौदह पूर्व की रचना करने वाले गणधर पद को प्राप्त कर अरहंत-सिद्ध पद प्राप्त किया। ___हे भव्यजीवो ! इसप्रकार गौतम गणधर के अशुभ-शुभ और शुद्ध परिणाम और उसका फल कहा जो भव्यजीव आत्मा की शुद्धता को जानते हैं और उसका विश्वास करते हैं, आनन्द की अनुभूति में लीन रहते हैं, वे जीव संसार भ्रमण से छूटकर मुक्ति को प्राप्त करते हैं।
साभार - गौतम स्वामी चरित्र पर आधारित