Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

View full book text
Previous | Next

Page 59
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/57 __अहो ! दृष्टि का कमाल, जहाँ श्रद्धा ने पलटा खाया, वहाँ उसके अविनाभावी सभी गुणों की दिशा बदल गई। सम्यक् श्रद्धा के साथ जागृत होनेवाला विवेक भी स्व-पर का यथार्थ ज्ञाता हो गया और चारित्र में भी स्वरूप-रमणता का अंकुर फूट पड़ा। काँच के लोभी को रत्नों का निधान मिल गया। श्री सूर्यमित्र मुनिराज को जिनेन्द्र देव एवं उनके द्वारा प्ररूपित जैनधर्म की सत्यता का बोध हो गया। अब उन्हें जैनधर्म की कोई अपूर्व महिमा आने लगी। वे विचार करते हैं- "सच्चे सुख का कारण होने से यही धर्म महान है, स्वर्ग-मोक्ष का कारण है। अन्य स्वार्थी लोगों द्वारा कथित सभी धर्म झूठे हैं, अत: वे सभी मुझे अब विषतुल्य भासित होते हैं। वे मत नरकादि गतियों के दाता हैं। जैनधर्म में जीवादि समस्त पदार्थ सारगर्भित होने से वे ही सत्य एवं महान हैं। धर्म की उत्पत्ति अर्थात् सम्यग्दर्शन के लिये सर्वज्ञ प्रणीत शास्त्र ही निमित्तभूत होते हैं। मैंने कुमार्ग-गामियों द्वारा कहे गये खोटे और अशुभ कुतत्त्वों को सीखकर अपने जीवन का इतना समय व्यर्थ ही गमाया।" “मति-श्रुत ये दो ही ऐसे परोक्षज्ञान हैं, जिनके द्वारा केवलज्ञान समान सम्पूर्ण चराचर पदार्थों का ज्ञान हो सकता है।" अवधिज्ञान तो जगत के रूपी पदार्थों को उनके सम्बन्ध से भवान्तरों को प्रत्यक्ष देखता है। उसके देशावधि, परमावधि और सर्वावधि ऐसे तीन भेद हैं। यह अवधिज्ञान चारों गतियों में हो सकता है। रूपी एवं सूक्ष्म पदार्थों को प्रत्यक्ष देखनेवाला मन:पर्ययज्ञान है, जो तप की विशिष्टता से किन्हीं-किन्हीं योगियों को ही प्रगट होता है। और केवलज्ञान, घातिकर्मों-के नाश से आत्मा में उत्पन्न होनेवाला, तीन जगत को देखने-जाननेवाला प्रत्यक्षज्ञान है। ये पांच प्रकार के ज्ञान जिनमें जगत के समस्त पदार्थ यथायोग्य स्पष्ट झलकते हैं, इनको कोई भी विद्वान किसी को दे नहीं सकता। ये ज्ञान तो आत्मसन्मुख पुरुषार्थ द्वारा तथा ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्मों के क्षयोपशम-क्षय द्वारा योगियों को स्वतः उत्पन्न होते हैं। मैंने यह बहुत ही उत्तम कार्य किया, जो अवधिज्ञान के लोभ से ही

Loading...

Page Navigation
1 ... 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84