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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/70 इन्द्रियों के भोग महाठग हैं, इनमें सुख की आशा कैसे की जा सकती है? - इस प्रकार मन में विचार करके वह ज्ञानी अन्तरात्मा समस्त परिग्रह का त्याग करके दीक्षा धारण कर तपश्चरण करने लगा।
एक दिन वह हंसावली नदी के किनारे कायोत्सर्ग धारण करके बैठा था, वहाँ तूने उसे देखा। उसे देखते ही तेरी क्रोधाग्नि भड़क उठी और तुझ मूर्ख ने उसका उपहास किया कि अहो आनन्दमाल ! तू काम-भोग में अति आसक्त था, अब अहल्या के साथ रमण कौन करेगा ? वे मुनि तो विरक्त चित्त पहाड़ के समान निश्चल होकर बैठे थे। उनका मन तत्त्वार्थ चिंतन में अन्यन्त स्थिर था। इस प्रकार तूने परममुनि की अवज्ञा की। वे मुनिराज तो आत्म सुख में मग्न थे, उन्होंने तेरी बात को हृदय में प्रवेश नहीं होने दिया। उनके पास ही तेरे भाई कल्याण नाम का मुनि बैठे थे। उन्होंने तुझसे कहा कि तूने इन मुनिराज की अवज्ञा की हैं, इस कारण तेरी भी अवज्ञा होगी। तब सर्वश्री नाम की स्त्री, जो कि सम्यग्दृष्टि और साधु पूजक थी, उसने नमस्कार करके कल्याणस्वामी को शान्त किया।
यदि उसने उन्हें शान्त नहीं किया होता तो तू तत्काल साधु की क्रोधाग्नि से भस्म हो जाता। तीन लोक में तप के समान कोई बलवान नहीं है। जैसी शक्ति साधुओं की होती है वैसी इन्द्रादिकों की भी नहीं होती है। जो पुरुष साधुओं का अनादर करता है, वह भव-भव में अत्यन्त दुःख पाकर नरकनिगोद में ही पड़ता है। अतः इसभव और परभव में दुःख ही भोगता है, मुनियों की अवज्ञा के समान दूसरा पाप नहीं है । यह प्राणी मन, वचन और काया से जैसा कर्म करता है वैसा ही फल भोगता है। - ऐसा जानकर अब तुम बुद्धि को धर्म में लगाओ और अपनी आत्मा को संसार दुःखों से छुड़ाओ।
__ महामुनि के मुख से अपने पूर्वभव की कथा सुनकर इन्द्र आश्चर्य को प्राप्त हुआ। वह नमस्कार करके मुनिराज से कहने लगा-हे भगवन् ! आपके प्रसाद से मैंने उत्तम ज्ञान प्राप्त किया। साधुओं के संग से जगत में कुछ भी दुर्लभ नहीं है, अनन्त जन्मों में जो नहीं मिला, वह आत्मज्ञान भी उनके प्रसाद से मिलता है। अब समस्त कर्मों के क्षय का उपाय करूँगा। - ऐसा कहकर