Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 71
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/69 .. . पुत्ररूप में जन्म लिया। उसने पिता के साथ वैराग्य अंगीकार किया और अति घोर तप करते हुए अपना चित्त तत्त्वार्थों के चित्तन में लगाया। निर्मलसम्यक्त्व पूर्वक कषाय रहित बाईस परिषहों को सहन करके शरीर का त्याग किया और नौवे ग्रैवेयक में गया। वहाँ बहुतकाल तक अहमिन्द्र के सुख भोगकर राजा सहस्रार विद्याधर की रानी हृदयसुन्दरी के गर्भ से उनके पुत्ररूप में तेरा यहाँ रथनूपुर में जन्म हुआ और पूर्व के अभ्यास से तेरा मन इन्द्र समान सुख में आसक्त हुआ और तू विद्याधरों का अधिपति. राजा इन्द्रं कहलाया। . अब तू यह सोच कर व्यर्थ खेद करता है कि "मैं विद्या में अधिक था और शत्रुओं से पराजित हुआ। अरे, कोई बुद्धिहीन पुरुष कोदव बोकर चावलों की इच्छा करे वह निरर्थक है। यह प्राणी जैसा कर्म करता है वैसा फल भोगता है। तूने पूर्व में भोग का साधन हो वैसा शुभ कर्म किया था वह नष्ट हुआ है। कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं होती - इस विषय में आश्चर्य कैसा ? तूने इस जन्म में अशुभ . कर्म किये हैं, उसका यह अपमानरूप फल मिला है और रावणं तो निमित्तमात्र है। तूने जो अज्ञानरूप चेष्टा की है, क्या तूवह नही जानता ?तू ऐश्वर्यमद के कारण भ्रष्ट हुआ है। बहुत काल बीत जाने के कारण तुझे याद नहीं है। मैं बताता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुन- . अरिंजयपुर में ब्रह्मवेग नामक राजा की वेगवती रानी की अहल्या नाम . की पुत्री का स्वयंवर मण्डप रचा गया था। वहाँ दोनों श्रेणियों के विद्याधर अति-अभिलाषारखंकरं गये थे और तू भी वहाँ अपनी विशाल सम्पदा सहित गया था। एक चन्द्रावर्त नाम के नगर का मालिक राजा आनन्दमाल भी वहाँ . आया था। अहल्या ने सबको छोड़कर उसके गले में वरमाला डाली थी। वह आनन्दमाल अहल्या से विवाह करके इन्द्र-इन्द्रानी की तरह मनवांछित . सुख भोगता था। जिस दिन से उसका विवाह अहल्या के साथ हुआ, उसी दिन से तुझे उसके प्रति ईर्ष्या बढ़ी और तूने उसे अपना शत्रु माना। कितने . ही दिन वह घर में रहा । फिर उसको ऐसा विचार आया कि यह देह विनाशीक है, अतः अब मैं तप करूँगा, जिससे मेरे संसार भ्रमण का अन्त होगा। ये

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