Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 64
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/62 जिसे सुनकर कुमार नागदत्त अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने देवमित्र का उपकार मानता है और स्वयं यमधर मुनिराज के समीप जाकर जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर कुमार नागदत्त से मुनि नागदत्त बन जाते हैं। कठिन तपस्या करने हेतु अपने दीक्षा गुरु से आज्ञा लेकर जिनकल्पी एकलबिहारी मुनि होकर तपश्चर्या करने लगते हैं। एक दिन यात्रा करते हुए रास्ते में भयंकर जंगल आया। जंगल में डाकुओं का विशाल अड्डा था। डाकुओं ने मुनि को देखा तो उनको लगा कि यह मुनि किसी को बता देंगे तो हमारा गुप्तस्थान प्रसिद्ध हो जायेगा। ऐसा विचारकर वे डाकू मुनि नागदत्त को अपने सरदार के पास पकड़कर ले गये। डाकू सरदार ने मुनि को देखते ही कहा कि तुम मुनिराज को पकड़कर क्यों लाये हो? ये तो शत्रु-मित्र के प्रति समभावी होते हैं। शीघ्र ही इनको छोड़ दो। डाकुओं ने तुरन्त ही मुनिराज को छोड़ दिया। मुनिराज नागदत्त को वहाँ से विहार करते हुए आगे जाने पर रास्ते में अनेक अंगरक्षकों सहित जाते हुए अपनी माता नागदत्ता मिलती है। वह कौशाम्बी के सेठ जिनदत्त के पुत्र धनपाल के साथ अपनी पुत्री को विवाहने के लिये जा रही थी। माता नागदत्ता मुनिराज के दर्शन कर अत्यन्त प्रसन्न होती हुई मुनिराज को वन्दन करती है। मुनिराज से सुख-साता पूछते हुए यह भी पूछती है कि आगे का मार्ग भय रहित है या नहीं ? परन्तु मुनिराज उसका कोई भी उत्तर दिये बिना चले जाते हैं। इधर नागदत्ता भी अपनी पुत्री को लेकर आगे चली जाती है। वहाँ डाकू आकर हमला करके नागदत्ता को लूट लेते हैं तथा माँ-बेटी को पकड़कर अपने सरदार के पास ले जाकर उससे कहते हैं कि उन मुनिराज को छोड़कर हम जंगल में इधर-उधर घूम रहे थे, वहाँ आकर इन माँ-बेटी ने मुनिराज के दर्शन किये और इस तरफ आगे बढ़ी तो भी मुनिराज ने यह नहीं कहा कि इस ओर डाकू बसते हैं। अत: हम उनका धनादि सब वैभव लूटकर तुम्हारे लिये यह राजकन्या पकड़कर लाये हैं। ___यह सुनकर डाकुओं का सरदार कहता है कि -"देखो ! मैंने कहा था

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