Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 68
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/66 ज्यों के त्यों रहेंगे और दोनों श्रेणी से अधिक राज्य की इच्छा हो तो वह भी ले लो । मेरे में और उसमें कोई अन्तर नहीं है। आप बड़े हो, गुरु हो; जैसे इन्द्र को शिक्षा देते हो वैसे ही मुझे भी दो। आपकी शिक्षा आनन्दकारी है। आप रथनूपुर में विराजो अथवा यहाँ विराजो, दोनों आपकी ही भूमियाँ हैं। ऐसे प्रिय वचनों से इन्द्र के पिता सहस्रार का मन अत्यन्त सन्तुष्ट हुआ। वे कहने लगे कि हे भव्य ! तुम्हारे जैसे सज्जन पुरुषों की उत्पत्ति सभी लोगों को आनन्द देती है। हे चिरंजीवी ! तुम्हारी शूरवीरता का आभूषण यह उत्तम विनयभाव सम्पूर्ण पृथ्वी में प्रशंसा के योग्य है। तुम्हें देखने से हमारे नेत्र सफल. हुए हैं। धन्य हैं तुम्हारे माता-पिता कि जिन्होंने तुम्हें जन्म दिया। तुम्हारी कीर्ति कुन्दपुष्प के समान उज्ज्वल है। तुम समर्थ और क्षमादान के दाता तथा गर्व रहित ज्ञानी हो, गुणप्रिय जिनशासन के अधिकारी हो। तुमने मुझे यह कहा कि यह आपका घर है और जैसा इन्द्र आपका पुत्र है वैसा मैं हूँ' सो तुम्हारी यह बात प्रशंसा के योग्य है, तुम्हारे मुख से निकले ये वचन आदर योग्य हैं, तुम्हारे जैसा पुरुष इस संसार में विरल है। परन्तु जन्मभूमि माता के समान होती है, उसे छोड़ा नहीं जा सकता। जन्मभूमि का वियोग चित्त को आकुल-व्याकुल करता है। तुम समस्त पृथ्वी के स्वामी हो, तो भी तुम्हें लंका ही प्रिय है। हमारे बंधुजन और समस्त प्रजाजन हमें देखने की अभिलाषा से हमारे आगमन का इन्तजार कर रहे हैं, इस कारण अब मैं रथनूपुर जाऊँगा; परन्तु हमारा चित्त सदा तुम्हारे पास रहेगा। हे दशानन् ! तुम चिरकाल तक पृथ्वी की रक्षा करो। इस वार्तालाप के पूर्ण होते ही रावण ने राजा इन्द्र को बुलाया और सहस्रार के साथ भेज दिया। रावण स्वयं सहस्रार को पहुँचाने थोड़ी दूर तक गया और अत्यन्त विनय पूर्वक विदा दी। सहस्रार इन्द्र को लेकर लोकपाल सहित विजयार्द्ध गिरि पर आये। सारा राज्य ज्यों का त्यों था । लोकपाल आकर अपने-अपने स्थानों पर रहे, परन्तु मानभंग से आकुलता को प्राप्त हुए।

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