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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/63 न कि मुनि तो सर्व जीवों के प्रति समभावी होते हैं। मुनिराज के दर्शन करने वाली इस माता-पुत्री को भी उन्होंने यह नहीं कहा कि आगे डाकुओं का भय है। अहो ! प्रचुर स्वसंवेदन में झूलते हुए वीतरागी संत को डाकू हो या मित्र सबके प्रति समभाव वर्तता है।" कहा भी है कि -
अरि-मित्र, महल-मसान, काँच-कंचन, निन्दन-थुति करन। अर्घावतारन-असिप्रहारन में सदा समता धरन ।
माता नागदत्ता बहुत क्रोधित होती है कि “अरे ! मेरे पुत्र से मैंने दर्शन करके पूछा कि आगे मार्ग भयरहित है या नहीं ? परन्तु मुझसे बात भी नहीं की और हमको मौत के मुँह में जाने दिया। धिक्कार है ऐसे निष्ठुर - निर्दयी पुत्र को" अरे, मैंने ऐसे निष्ठुर - निर्दयी पुत्र को जन्म दिया। इसकी अपेक्षा तो मुझे पुत्र ही नहीं होता तो ठीक था..... इत्यादि कल्पनाएँ करके आत्मघात हेतु वह अपने पेट में छुरी मारने को ज्यों ही तैयार होती है, त्यों ही सरदार गद्गद् होकर माता नागदत्ता के पैरों में पड़कर क्षमा माँगता है और कहता है कि “हे माता ! तू मात्र नागदत्त मुनि की ही माता नहीं, बल्कि हमारी भी माता है। माता धन्य है तुम्हें जो तुमने ऐसे उत्तम मुनिराज को जन्म दिया" - ऐसा कहकर डाकू सरदार लूटा हुआ धन और राजकन्या माता को सौंपकर पुनः क्षमा माँगता है। __ डाकू भी मुनिराज नागदत्त के वीतरागी साम्यभाव की महिमा करते हैं कि अहो ! धन्य हैं वे नागदत्त मुनिराज और धन्य है वह मुनिदशा ! देखो तो सही ! अपनी माता के पूछने पर भी सहज सावधान नहीं करते कि आगे डाकू हैं। चैतन्य स्वरूप में झूलते वीतरागी निर्लेप मुनिराज के लिये तो माता हो या डाकू सब समान हैं। उनके सहज ही किसी के भी प्रति राग-द्वेष नहीं होते । “अपनी माता-बहिन डाकुओं की ओर न जाये तो ठीक" - ऐसा विकल्प तक भी जिनको नहीं होता, ऐसे समभावी सन्त मुनिवर धन्य हैं। इत्यादि प्रकार से महिमा करते-करते वह डाकू भी मुनिराज नागदत्त के समीप जाकर जैनेश्वरी दीक्षा देने हेतु निवेदन करता है। मुनिराज डाकू सरदार को पात्र जानकर जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान करते हैं और उनका नाम सूरदत्त मुनिराज