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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - 17/49
इसप्रकार पूर्वभव के पापों की बात सुनकर पूतिगंध कुमार ने तत्त्व में अपना उपयोग लगाया और तत्त्व निर्णय व पाँच लब्धियों पूर्वक सम्यक्त्व प्राप्त करके श्रावक के व्रत धारण किये और उपवास आदि धर्म का पालन करते हुए उसे मात्र एक माह ही हुआ था कि अत्यन्त विरक्ति होने से उसने अपने विजय नामक पुत्र को गद्दी पर बैठाकर जिनदीक्षा ले ली। और चार प्रकार की आराधना पूर्वक सल्लेखना मरण प्राप्त कर प्राणत स्वर्ग में 22 सागर की स्थिति वाला ऋद्धिधारी देव हुआ। 22 सागर तक स्वर्ग में विपुल भोगों को भोगकर वहाँ से चयकर विदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी में विमलकीर्ति राजा के यहाँ अर्ककीर्ति नाम का पुत्र हुआ ।
अर्ककीर्ति अत्यन्त रूपवान एवं लोगों के मन को हरने वाला था । अर्ककीर्ति का प्राणों से भी प्रिय मेघसेन नामक एक मित्र था। दोनों मित्र एक साथ ही विद्याभ्यास करके पारंगत हुए थे ।
एक समय मथुरा में सुमंदिर नाम के सेठ पुत्र का विवाह सुशीला और सुमति नाम की दो कन्याओं के साथ हो रहा था। उन कन्याओं को राजकुमार अर्ककीर्ति ने देख लिया और उसके मित्र मेघसेन को संकेत करने पर मेघसेन उन दोनों कन्याओं को उठा लाया, परन्तु मेघसेन को उन कन्याओं को उठाते हुए ग्रामवासियों ने देख लिया, अतः गाँव के लोगों ने मेघसेन के पास से उन कन्याओं को तो छुड़ा लिया और पुण्डरीकिणी नगरी में आकर विमलकीर्ति राजा को यह सम्पूर्ण वृतान्त सुना दिया। राजा विमलकीर्ति ने क्रोधित होकर निष्पक्ष न्याय करते हुए अपने पुत्र राजकुमार अर्ककीर्ति व उसके मित्र मेघसेन को देश से निष्कासित कर दिया ।
दोनों मित्र वहाँ से निकलकर वीतशोकपुर आये । वहाँ के राजा विमलवाहन की जयमति आदि आठ रूपवान, गुणवान कन्यायें चन्द्रभेद करने वाले को विवाही जानी थीं। इसके लिये अनेक राजकुमार आये थे, परन्तु किसी से भी चन्द्रभेद नहीं हो सका था। तत्पश्चात् अर्ककीर्ति ने आकर चन्द्र का भेदन कर दिया। इस कारण राजा ने प्रतिज्ञानुसार आठों राजकन्याओं