________________
. जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/54
संकोच छोड़कर पूछ लेना चाहिए। ऐसा विचार कर पूछने के विचार से सूर्यमित्र पुरोहित हाथ जोड़कर मुनिराज के समीप ही बैठ गया ।
अवधिज्ञान के धारी परमोपकारी योगीश्वर उसे अत्यन्त निकटभव्य जान उस पर अपने अमृतमयी वचनों की वर्षा करने लगे - 'हे सूर्यमित्र ! राजा की रमणीक मुद्रिका तुम्हारे हाथ से गिर जाने के कारण तुम चिन्ताग्रस्त हो और अपनी चिन्ता निवारण हेतु मेरे पास आये हो ।'
सूर्यमित्र पुरोहित अपने द्वारा कुछ भी बताये बिना ही मुनिराज के मुख से अपने मन की बात सुनकर आश्चर्यचकित हुआ और श्रद्धावंत हो मुनिराज ́ को नमस्कार कर पूछने लगा
'हे प्रभु! वह मुद्रिका कहाँ पड़ी हैं वह स्थान बताने की कृपा कीजिये।'
देखो उपादान की योग्यता के अनुकूल स्वतः निमित्त का मिलना । तीन ज्ञानरूपी नेत्रधारी योगीश्वर ने जवाब दिया कि 'हे विप्रवर! तुम्हारे महल के पीछे बगीचेवाले तालाब पर जाकर जब तुम सूर्य को जल चढ़ा रहे थे, तब तुम्हारी अंगुली से मुद्रिका निकल कर सरोवर के कमल की एक पंखुडी पर गिर गई है। वह अदृश्य होने से अभी भी वहाँ पड़ी हुई है, इसलिये तुम मुद्रिका की चिन्ता छोड़ो और मेरे वचनों पर विश्वास रखो । '
पुरोहित. यह सुनते ही तालाब के पास जाकर देखता है तो वास्तव में मुद्रिका वहाँ ही पड़ी थी। उसने साधु महाराज के उपकार की कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहा - हे गुरुवर ! आप ही इस लोक में महान हो, आप ही धन्य हो, आपको बारम्बार नमन हो । वहाँ से उठकर वह शीघ्र ही राजा के पास गया और मुद्रिका राजा को सौंपकर बड़ा ही विस्मय को प्राप्त हुआ ।
4
अब पुरोहित को वह विद्या प्राप्त करने का भाव जागा, जिससे मुनिराज कुछ भी कहे और देखे बिना ही सर्व वृतान्त जान गये थे। उसने विचारा कि ये मुनिराज तो सर्व के प्रत्यक्ष ज्ञाता और ज्ञानियों में भी श्रेष्ठ महाज्ञानी हैं। मुझे भी इनकी सेवा आराधना करके इनसे यह विद्या प्राप्त कर लेनी चाहिये, जिससे सत्पुरुषों में, विद्वानों में मेरी महान प्रसिद्धि होगी, प्रतिष्ठा
-