Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

View full book text
Previous | Next

Page 27
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/25 उसी चम्पापुरी में धनदेव नामक सेठ के दो पुत्र थे। उनमें से बड़े पुत्र जिनदेव के साथ दुर्गन्धा की सगाई होने से वह मुनि हो गया। उसका छोटा भाई जिनदत्त, उसने परिवार के आग्रह से दुर्गन्धा के साथ विवाह कर लिया; परन्तु वह भी उसे छोड़कर देशान्तर चला गया। इस कारण दुर्गन्धा अपनी निन्दा करती हुई अपने पूर्वकर्मों को कोसने लगी। एक दिन उसके घर में क्षाता नामक आर्यिका के आहार हुए। आहार के पश्चात् उनके साथ दो नई उम्र की आर्यिकाओं को देखकर दुर्गन्धा ने बड़ी आर्यिकाजी से पूछा कि हे माताजी ! ये दोनों आर्यिकायें अतिरूपवान हैं इनको नवयौवन में किस कारण वैराम्य हुआ है। __ तब दयावान आर्यिका माताजी उनके वैराग्य का कारण दुर्गन्धा को प्रतिबोधनार्थ कहने लगीं- हे सुकुमारी ! जिस कारण से इन दोनों को वैराग्य हुआ वह तू भी सुन ! ये दोनों पूर्व भव में सौधर्म इन्द्र की देवियाँ थी। एक का नाम विमला था और दूसरी का नाम सुप्रभा। एक दिन ये नंदीश्वर में जिनपूजा के लिये गई थीं। वहीं इनको वैराग्य उत्पन्न हुआ। तब इन दोनों ने प्रतिज्ञा की कि देवगति में तो तप करने की योग्यता नहीं है, हम मनुष्य भव पाकर महातप करेंगे। जिससे स्त्री पर्याय का अभाव होकर भवभ्रमण का अभाव हो। ___ इस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर देव पर्याय से च्युत होकर साकेतपुरी में राजा श्रीषेण की रानी श्रीकान्ता की पुत्रियाँ हुई। जब इन दोनों ने यौवन में प्रवेश किया, तब पिता ने इनका स्वयंवर रचा। उसी समय इन दोनों बहिनों को " पूर्व जन्म की प्रतिज्ञा का स्मरण हो आया और इससे वे परिवार का त्याग करके आर्यिका हुईं हैं। आर्यिका माताजी के इन वचनों को सुनकर दुर्गन्धा को भी वैराग्य हो गया; अत: वह भी आर्यिका हो गई और उन आर्यिका माताजी के साथ उपवासादि तप करके उसने शरीर को तो सुखा दिया; पर भावपूर्ण हो कर्मों को नहीं खिरा सकी। एक दिन वन में पाँच पुरुषों के साथ क्रीड़ा करने बसंतसेना वैश्या आई। . उसे देखकर दुर्गन्धा को ऐसा भाव हुआ कि यह कैसी सौभाग्यवती है। यह . परिणाम होने से अपयशप्रकृति का बंध हुआ। तत्पश्चात् वह समाधिमरण.

Loading...

Page Navigation
1 ... 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84