Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 30
________________ - - जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/28 रक्षा के लिये रखकर सुभानु आदि छह भाई चोरी करने के लिये नगरी में गये और छोटे भाई सूरसेन से कह गये कि यदि चोरी करते हुए हम मर जायें तो तू यहाँ से भाग जाना और यदि हम वापस आ गये तो चोरी से प्राप्त धन में से तुझे बराबर का हिस्सा देंगे - ऐसा कहकर छहों भाई चोरी करने चले गये और सातवाँ छोटा भाई सूरसेन श्मशान में बैठकर उनका इन्तजार करने लगा। इसी समय एक नवीन प्रसंग बना है; वह सुनो___उज्जैनी नगरी का राजा वृषभध्वज था। उसके दृष्टिमुष्टि नाम का महा योद्धा था, उसके वप्रश्री नाम की स्त्री थी, उसके वज्रमुष्टि नाम का पुत्र था, जिसका विवाह राजा विमलचन्द्र की मंगी नाम की पुत्री के साथ हुआ था। मंगी अपने पति वज्रमुष्टि को बहुत प्रिय थी। मंगी अपनी सास की सेवा में प्रमादी थी, इस कारण उसकी सास का चित्त कलुषित रहता था। अतः सास ऐसा उपाय सोचती थी कि किसी प्रकार मेरा पुत्र मंगी से विरक्त हो अथवा मंगी मर जाए। एक समय बसंत ऋतु के उत्सव में वज्रमुष्टि वन में क्रीड़ा करने गया और पीछे से मंगी की सास ने घड़े में सर्प रखकर कपट पूर्वक मंगी से कहा- बहू ! इस घड़े में मोती की माला है, तू उसे निकालकर पहिल ले। मंगी ने मोती की माला लेने के लिए घड़े में हाथ डाला तो तुरन्त उसे सर्प ने डस लिया, जिससे वह तुरन्त ही मूर्छित हो गई, तब उसकी सास ने सेवकों को आज्ञा दी कि इस. मंगी को श्मशान में डाल आओ।सेवक आज्ञानुसार मंगी को महाकाल श्मशान में डाल आये। तत्पश्चात् रात्रि में मंगी का पति वज्रमुष्टि घर आया और प्राणप्रिय मंगी को सर्प डसने आदि के समाचार जानकर अत्यन्त ही दुःखी हुआ। वह तुरन्त एक हाथ में नंगी तलवार और एक हाथ में दीपक लेकर महाकाल श्मशान में मंगी को खोजने चल पड़ा। उसी रात्रि महाकाल श्मशान में वरधर्म नाम के मुनिराज प्रतिमायोग धारण करके विराजमान थे, उन्हें देखकर वज्रमुष्टि अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसने मुनिराज की तीन प्रदक्षिणा की और नमस्कार कर कहने लगा - 'हे पूज्यपाद ! यदि मेरी स्त्री मुझे मिल जाए तो मैं सहस्रदल पुष्प से

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