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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - 17/35
निजात्म साधना का चमत्कार
( जयकुमार - सुलोचना के पूर्वभवों पर आधारित)
( " जिसने अनेक भवों तक सम्राट चक्रवर्ती भरत के सेनापति का पद भार सम्हाला - ऐसे तद्भव मोक्षगामी जयकुमार को मारनेवाले जीव की उन जयकुमार से भी पूर्व मुक्ति हो गई" - इस चमत्कार को बताने वाली कथा को यहाँ आदिपुराण भाग-2 के आधार से दिया जा रहा है। इसे पढ़कर पाठकगण सच्चे धर्म की पहिचान कर सच्चे धर्म को अंगीकार कर मुक्तिमार्ग पर अग्रसर हो सकेंगे।)
हस्तिनापुर के महाराजा सोमप्रभ का पुत्र जयकुमार भरत चक्रवर्ती का धर्मनिष्ठ और शूरवीर सेनापति था। एक दिन सेनापति जयकुमार अपनी रानी सुलोचना के साथ कुटुम्बीजनों सहित महल की छत पर बैठे हुए थे । उन्होंने ऊपर से जाते हुए एक कबूतर - कबूतरी को देखा, जिन्हें देखते ही जयकुमार के मुख से 'हा ! प्रभावती तू कहाँ है?' यह शब्द निकले, और वे तत्काल ही मूच्छित हो गए । सुलोचना को भी उन कबूतर - कबूतरी को देखते ही जातिस्मरण हुआ और वह भी 'हा ! मेरा रतिकर कहाँ है?' इन शब्दों को बोलकर मूर्छित हो गई। जब वे दोनों होश पें आये तब पति की आज्ञानुसार रानी सुलोचना ने अपने पूर्व भवों का वर्णन परिवारजनों के सामने इसप्रकार किया
जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में पुष्कलावती नाम का देश हैं, उसकी मृणालवती नगरी में राजा सुकेतु राज्य करते थे। उस नगरी में एक रतिवर्मा नाम का सेठ रहता था । उसकी स्त्री का नाम कनकश्री था; उनके एक भवदेव नाम का पुत्र था, जो चरित्रहीन था । इसी नगरी में एक श्रीदत्त नाम का सेठ भी रहता था, उसकी पत्नी का नाम विमलश्री और पुत्री का नाम रतिवेगाः था। भवदेव के माता-पिता ने रतिवेगा के माता-पिता के समक्ष भवदेव के विवाह का प्रस्ताव रखा, जिसके फलस्वरूप दोनों पक्ष सहमत हो गए ।
अशोकदेव नाम का एक तीसरा सेठ भी इसी नगरी का बासी था ।