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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/23 दोनों भाई सपरिवार साधुओं की वन्दना हेतु उनके समीप गये, विधिपूर्वक मुनिराज की पूजा करके धर्म का श्रवण किया। ___जिसको संसार, शरीर और भोगों से वैराग्य उत्पन्न हुआ है- ऐसे राजा मधु अपने भाई कौटभ सहित मुनिदीक्षा अंगीकार कर आत्मकल्याण के मार्ग पर लग गये। उनके साथ अन्य भी अनेकों राजाओं ने मुनिदीक्षा अंगीकार की। चन्द्राभा आदि अनेकों रानियों ने भी आर्यिका के व्रत अंगीकार किए। अनेक प्रकार से तप करके अन्तिम एक माह का संन्यास धारण करके शरीर त्याग कर राजा मधु सोलहवे स्वर्ग में इन्द्र हुआ और कौटभ देव हुआ, दोनों की आयु बाईस सागर थी। दोनों सम्यग्दृष्टि जीव स्वर्गसुख भोगकर मनुष्य हुए। मधु का जीव रुक्मणी की कोख में कृष्ण नामक नौवे नारायण का प्रद्युम्न नाम का पुत्र हुआ और दूसरा भाई कौटभ भी देवलोक से चयकर उसी का भाई माता जाम्बूवति का शम्भुकुमार नाम का पुत्र हुआ। - ये दोनों भाई जन्म से ही परस्पर हित में उद्यमी महाधीर-वीर चरमशरीरी हैं और इसी भव से मोक्ष जायेंगे। ___ इधर राजा वीरसेन आर्तध्यान पूर्वक मरण कर चिरकाल तक संसार वन में भ्रमण करके मनुष्य हुआ और अज्ञान तप करके धूमकेतु नाम का असुर देव हुआ। उसने विभंग अवधि से पूर्वभव के स्त्री हरण का प्रसंग जानकर बैरभाव से बालक प्रद्युम्न का हरण किया है। धिक्कार हैं ऐसे बैर को जो पाप को बढ़ाने वाला है! ... इस कथा से यह प्रेरणा मिलती है कि “एक शियाल जैसा तुच्छ प्राणी मनुष्य होकर मुनिहिंसा करने जाता है और मुनि के प्रभाव से जैनधर्म को ग्रहण करके उन्नत क्रम में परिणामों को उज्वल करके श्री नेमिनाथ भगवान के कुल में जन्म लेकर अनेक आश्चर्यकारी विद्याओं को साधकर उनसे भी मोह त्यागकर मुनि होकर क्षपकश्रेणी मांडकर सर्व कर्मों का क्षयकर मोक्ष को प्राप्त करता है। अन्दर में विद्यमान सिद्ध स्वरूप कारणपरमात्मा का आश्रय कर, उसकी श्रद्धा-ज्ञान और लीनता के बल से मोह का सर्वथा नाश करके सिद्ध हो जाता है।" -श्री हरिवंश पुराण पर आधारित