Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 23
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/21 के जोर और भय के कारण रानी चन्द्राभा उसका विद्रोह तो न कर सकी, परन्तु मन ही मन अपने पति राजा वीरसेन को याद करके कुछ काल तक तो वह बहुत दुःखी रही, फिर धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य हो गया। इधर रानी चन्द्राभा के वियोगरूप अग्नि से दु:खी राजा वीरसेन विलाप कर-करके पागल हो गया तथा पागल होकर चन्द्राभा की रट लगाते हुए पृथ्वी पर भ्रमण करने लगा। एकबार विलाप करता, घूमता-घूमता वह राजा वीरसेन अयोध्या आ पहुँचा। उस समय रानी चन्द्राभा अपने महल के झरोखे में बैठी थी। वह अपने पति को देखकर दयावान होते हुए राजा मधु से कहती है कि हे नाथ! मेरे पूर्व के पति को देखो ! वह प्रलाप करके पागल हुआ घूमता है। पर राजा मधु ने कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया और राज-न्यायालय में चला गया। उसी समय राजन्यायालय में कोतवाल एक परस्त्री लम्पटी को पकड़कर राजा मधु के पास लाया और कहा कि देव ! यह महापापी है, इसने परस्त्री सेवन जैसा महान अपराध किया है। परस्त्री सेवन का दण्ड राज न्याय में हाथ-पैर और शिर का छेद करना कहा है। सो राजा ने उसे भी यही कठोर दण्ड घोषित किया। तब रानी चन्द्राभा ने यह सब जानते हुए भी राजा से पूछा कि हे नाथ! इसने ऐसा कौन-सा महापराध किया है कि इसे ऐसा कठोर दण्ड देते हो ? तब राजा ने कहा कि परस्त्री सेवन के समान अन्य कौन-सा बड़ा पाप है ? तब रानी चन्द्राभा ने कहा कि इस पाप का दण्ड प्रजा को ही है या राजा को भी है ? तब राजा ने कहा कि सबके लिये एक ही दण्ड है। तब रानी ने हँसकर अपना मुँह नीचा कर लिया, जिसका आशय यह था कि तुम भी परस्त्री-रत पापी हो । तब राजा मन ही मन इस अभिप्राय को समझकर हताश हो गया। राजा मन में विचार करता है कि रानी ने मेरे कल्याण के लिये सत्य ही बात कही है। परस्त्री का हरण दुर्गति का कारण है। अत: राजा को वैराग्य उत्पन्न हो गया, रानी भी वैराग्यरूप हो गई। राजा को विरक्त जानकर रानी कहती है कि हे नाथ ! ऐसे अन्यायरूप भोग से क्या ? यह परस्त्री का विषय

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