Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 18
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - 1 17/16 गाँव में सात दिन तक भीषण वर्षा हुई, उल्कापात हुआ, तब सभी कृषक अपने-अपने घरों से बाहर नहीं निकल पाये। खेतों में काम भी नहीं कर पाये । उसी समय एक प्रवर नामक किसान की काथी (कृषि कार्य में काम आने वाला एक उपकरण विशेष ) खेत में पड़ा रहने से भीग कर गल गया । तुम दोनों भी भीषण वर्षा के कारण सात दिन से भूखे थे। भूख की वेदना के कारण तुम दोनों शियालों ने वह काथी खा ली, जिससे तुम्हारे पेट में वायुशूल हो गया। इससे असहनीय वेदना सहित तुम दोनों (शियाल) अकाम निर्जरा पूर्वक मरकर पूर्वकर्म बंधवशात् इसी गाँव में सोमदेव और अग्निला नामक दम्पत्ति के यहाँ अग्निभूति और वायुभूति नामक पुत्र हुए हो। तुम कुल के गर्व से गर्वित हो । यह कुलमद झूठा है। जीव को पाप के उदय से दुर्गति और पुण्य के उदय से सुगति होती है। इस कारण कुल - जाति का गर्व करना व्यर्थ है। बरसात रुकने के बाद वह प्रवर नाम का किसान खेत में गया। उसने शियालों को मरा हुआ देखकर उनके चमड़े से चरस बनाया, जो आज भी उसके घर में है । तथा वह किसान मरकर अपने पुत्र का पुत्र हुआ है और उसको जातिस्मरण भी हुआ है; इस कारण वह अपने को पुत्र का पुत्र हुआ जानकर गूंगा होकर रहता है और अभी यहीं बैठा है। वह मेरी तरफ देख रहा है, इतना कहकर मुनिराज ने उसको बुलाया और कहा कि तू प्रवर नाम का किसान है न ? पुत्र का पुत्र होने के शोक को तजकर अब गूंगापन छोड़ और अमृतरूप वचन बोल ! इस संसार में जीव नट की तरह नृत्य करता है । स्वार्मी से सेवक और सेवक से स्वामी हो जाता है। पिता हो वह पुत्र और पुत्र हो वह पिता हो जाता है, माता हो वह स्त्री और स्त्री हो वह माता हो जाती है - ऐसा ही संसार का स्वरूप विपर्यय है । जैसे रहँट का घड़ा ऊपर का नीचे और नीचे का ऊपर होता है, उसी प्रकार इस संसार में होता है। जीव अनादिकाल से इसी प्रकार भ्रमण करता है, इसलिये हे भव्य ! सार वस्तु का संग्रह करके जिसका मूल दया है - ऐसे पंच महाव्रत धारण कर !

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