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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/13 थी, मेरा कोई आलम्बन नहीं था। तुमने हस्तावलम्बन देकर मुझे स्थिर किया। जो सीमन्धर भगवान ने कहा वह सत्य ही है। मुझे अवश्य पुत्र के दर्शन होंगे। मैं जिनेन्द्र के वचन से जीवित हूँ। इस प्रकार उसने नारद को मधुर वचन कहे, तब नारद आशीष देकर विदा हुए। ___ इधर प्रद्युम्नकुमार कालसंवर के यहाँ कनकमाला माता की गोद में जो उसी की पूर्वभव में पत्नि चन्द्राभा थी, बड़ा होकर अपने पुण्य के प्रभाव से आश्चर्यकारी साहस द्वारा देवों को हराकर सोलह दैवी विद्यायें प्राप्त करता है और सोलह वर्ष के सुन्दर नव यौवन में प्रवेश करने पर पूर्व संस्कार वश माता कनकमाला को पुत्र के प्रति कामवासना जागृत होती है। इस प्रसंग से कनकमाला के साथ विरोध होने पर पिता कालसंवर के साथ प्रद्युम्न का युद्ध होता है, वह पिता को हराता है। उसी समय वहाँ नारद आ जाते हैं
और प्रद्युम्न से कहते हैं कि “तू कृष्ण-रुक्मणी का पुत्र है, कनकमाला और कालसंवर तेरे माता-पिता नहीं हैं। तेरा हरण होने से तू यहाँ बड़ा हुआ है - इत्यादि सारा वृतान्त उसे बताते हैं।" इससे वह माता-पिता के पास द्वारिका जाने हेतु तत्पर होता है। वह विद्याधर माता-पिता से क्षमा याचना करके द्वारिका जाने की आज्ञा लेता है। फिर विद्या द्वारा अनेक आश्चर्य करके द्वारिका के लोगों को मुग्ध करता हुआ माता रुक्मणी आदि से मिलता है तथा विद्या द्वारा बाल क्रीड़ा आदि करके माता को प्रसन्न करता है।
एक दिन वैराग्य का निमित्त पाकर राज्यादि समस्त बहिरंग और अन्तरंग परिग्रह त्याग कर प्रद्युम्नकुमार जैनेश्वरी दीक्षा धारण करके उग्र पुरुषार्थ द्वारा क्षपकश्रेणी मांडकर केवलज्ञान लक्ष्मी का वरण करते हैं। और आयु पूर्ण होने पर अनन्त अव्याबाध सुख स्वरूप मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
- इन सबका आश्यर्चकारी विस्तृत वर्णन प्रद्युम्न चरित्र, पाण्डव पुराण, हरिवंशपुराण आदि से जानना चाहिये।
बहिर्मुखता छोड़कर अन्तर्मुख होना-यही सम्पूर्ण सिद्धान्त का सार है।
- - पूज्य स्वामीजी ..