Book Title: Jain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Yuva Federation

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Page 11
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/9 विपत्ति में भी सम्पत्ति ("क्रोध के उदय से यह जीव दूसरों का बुरा करना चाहे, परन्तु बुरा होना उसके भवितव्य के आधीन है।" - इस अभिप्राय को सिद्ध करनेवाली पुराण-पुरुष श्री प्रद्युम्नकुमार की कथा प्रस्तुत है -) एक दिन रात्रि के समय रुक्मणी पलंग पर सो रही थी। उसने स्वप्न में अपने को हंस-विमान पर चढ़कर आकाश में गमन करते देखा। फिर जागृत होने पर अति प्रसन्न हुई। प्रात:काल. अपने पति श्रीकृष्ण से स्वप्न का फल पूछा। श्रीकृष्ण ने कहा कि हे रानी ! तुझे पुत्ररत्न प्राप्त होगा, जो भविष्य में महापुरुष होगा। पति के ये वचन सुनकर रुक्मणी हर्षित हुई और तत्पश्चात् नव माह पूर्ण होने पर रुक्मणी के सर्व लक्षणों से युक्त पुत्र का जन्म हुआ। उसी समय एक महाबलंवान, असुर धूमकेतु (अग्नि के गोले समान) वहाँ से निकला और रुक्मणी के महल के ऊपर आकर रुक गया। उसने अपने कुअवधिज्ञान से रुक्मणी के पुत्र को अपना शत्रु जाना, और क्रोधपूर्वक विमान से नीचे उतरकर उसने गुप्तरूप धारण करके रुक्मणी के प्रसूतिगृह में प्रवेश किया। यद्यपि रुक्मणी के महल में कड़ी सुरक्षा व्यवस्था थी, कोई भी वहाँ आसानी से नहीं पहुंच सकता था। तथापिं विद्याबल से रुक्मणी को निद्राधीन करके उसने बालक को अपने हाथ में उठा लिया और आकाश में ले गया। आकाश में जाकर उसने विचार किया कि पूर्वभव में मेरी स्त्री का हरण. करनेवाला ये मेरा शत्रु है - इस कारण इसको हाथ से मसलकर मार दूं या. नख से चीरकर आकाश के पक्षियों को खिला दूँ अथवा समुद्र में डालकर मगरमच्छों को खिला दूँ। फिर वह. पुनः विचार करता है कि अरे ! यह तो तत्काल का जन्मा है, इसे मारने की क्या जरूरत है, यह तो बिना मारे स्वयं स्वतः ही मर जायेगा। - ऐसा विचारकर वह धूमकेतू असुर आकाश से नीचे

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