Book Title: Jain Dharm Ek Zalak
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Shantisagar Smruti Granthmala

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Page 10
________________ स्वाद के लिए हज़ारों-लाखों पशु-पक्षी प्रतिदिन मौत के घाट उतारे जाते हों, ऐसे माहौल में जैन धर्म तथा समुदाय एक आदर्श है जो तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद आज भी इन सभी बातों से कोसों दूर है। उसे अपने अस्तित्व की कीमत पर भी राष्ट्र और जनता का अहित मंजूर नहीं है। इसके विपरीत राष्ट्र, समाज, जनता तथा पशु-पक्षियों तक की सेवा के लिए जैन धर्म तथा समाज सदैव समर्पित रहा है। आज़ादी के आंदोलन में राष्ट्र के लिए न जाने कितने जैनों ने कारावास भोगा, अपने प्राण न्योछावर कर दिए, क्रांतिकारियों को आर्थिक सहयोग के लिए तिजोरियाँ खोल दी और प्रतिदान में कभी यह भी अपेक्षा नहीं की कि मेरा नाम अखबारों में आए; शायद यही कारण है कि उनका नाम भी बहत कम लोग जानते हैं। समाजसेवा के क्षेत्र में जैन समाज ने हज़ारों अस्पताल पूरे देश में बनवाएँ जहाँ गरीबों का निःशुल्क इलाज चलता है। हज़ारों विद्यालय-महाविद्यालय पूरे देश में सिर्फ इसलिए बनाए ताकि राष्ट्र का भविष्य अनपढ़ न रहे। जैनों ने पशुपक्षियों के लिए अस्पताल तथा गौशालाएँ भी जीव रक्षा के प्रधान उद्देश्य से बनवाईं। आज भी दिगंबर तथा श्वेतांबर जैन मुनि पूरे भारत में नंगे पैर पैदल भ्रमण करते हैं तथा अहिंसा, दया, मैत्री, करुणा, शाकाहार, शांति का संदेश गाँव-गाँव में, नगर-नगर में फैलाते हैं; जनता को शुद्ध अहिंसक जीवन-शैली, राष्ट्रभक्ति तथा नैतिकता का प्रशिक्षण भी देते हैं। __इन सभी सद्-संस्कारों के पीछे जैन के सभी तीर्थंकारों की वे महान शिक्षाएँ हैं जिनका आज भी किसी न किसी रूप में पालन किया जा रहा है। तीर्थंकरों ने कोरा उपदेश ही नहीं दिया बल्कि आचरण में लाकर प्रेरणा दी, जो एक सही गुरु का कर्तव्य होता है। आज भी लाखों की संख्या में तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ खड्गासन या पद्मासन मुद्रा में परम वीतराग योगी स्वरूप ही मिलती हैं। कभी कोई हथियार लिए, किसी पशु पर सवार या फिर पत्नी को साथ में लिए हुए तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ कहीं नहीं मिलेंगी। जैन जिनकी पूजा-अर्चना करते हैं, उन्हें हमेशा शांत, अहिंसक तथा आध्यात्मिक ध्यान शुद्धोपयोग अवस्था में पाते हैं और यही संस्कार वे स्वयं में लाने का प्रयास करते हैं। जैन धर्म के इतिहास में ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है कि किसी को बलात् जैन बनाया गया हो अथवा दीक्षित किया गया हो। बलात् धर्मांतरण जैसी नीति उसे कभी पसंद नहीं रही। ऐसे सभी लोग जो जन्म से जैन नहीं थे किंतु इसके सिद्धांतों तथा आचरण से प्रभावित होकर जैन बने हैं और स्वयं के जीवन में उसका पालन कर रहे हैं, वे सभी स्वयं भी प्रभावित हुए हैं। कई ब्राह्मण विद्वान आरंभ में वैदिक रहे किंतु

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