Book Title: Jain Dharm Ek Zalak
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Shantisagar Smruti Granthmala

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Page 61
________________ 14 मनुष्य का भाव जगत् और गुणस्थान संसार दो तरह का होता है। एक द्रव्य संसार और दूसरा भाव संसार। द्रव्य संसार तो वह है जो हमें विभिन्न योनियों या गतियों के रूप में बाहर दिखलाई देता है और भाव संसार वह है जो हमारे भीतर बसा है। द्रव्य संसार में हम भले ही किसी भी गति में हों किंतु भाव संसार की अपेक्षा हमारे परिणाम (भाव) हर क्षण बदलते रहते हैं। हम अंतरोन्मुखी होकर अपने भावों या विचारों के खेल तो समझ ही सकते हैं, हाँ, दूसरे के भाव समझना बहुत कठिन है हमारे क्रिया परिणाम और अभिप्राय में जो आंतरिक भिन्नता रहती है, उसकी कल्पना करते हुए कवि 'युगल' जी ने देव-शास्त्र-गुरु पूजन में लिखा है 3 चिंतन कुछ संभाषण कुछ क्रिया कुछ की कुछ होती है। स्थिरता निज में प्रभु पाऊँ, जो अंतर का कालुष धोती है। पाँच भाव जैन दर्शन में जीव (आत्मा) के मुख्य रूप से पाँच भाव स्वीकार किए गए हैं। इन पाँचों भावों को जीव का स्वतत्व भी कहा जाता है, क्योंकि ये आत्मा को छोड़कर अन्य किसी द्रव्य में नहीं रहते हैं। ये पाँच भाव हैं (1 ) औदायिक- जो भाव कर्मों के उदय से उत्पन्न होते हैं, उन्हें औदयिक भाव कहते हैं। ( 2 ) औपशमिक- जो भाव कर्मों के उपशम (अनुदय) अर्थात् जमे रहने से होते हैं, उन्हें औपशमिक भाव कहते हैं। (3) क्षायिक- जो भाव कर्मों के क्षय (विनाश) से उत्पन्न होते हैं, उन्हें क्षायिक भाव कहते हैं। (4) क्षायोपशमिक जो भाव कर्मों के क्षय (विनाश) तथा उपशम (अनुदय) इन दोनों से उत्पन्न होता है, वह क्षायोपशमिक या मिश्र भाव कहलाता है। (5) पारिमाणिक बाह्य निमित्त ( कारणों) के बिना द्रव्य के स्वाभाविक परिणमन से जो भाव प्रकट होता है, वह पारिमाणिक भाव है। इसमें कर्मों का उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम कारण नहीं बनता है। आत्मा इन भावों अर्थात् गुणों से युक्त होता है, अतः आत्मा को गुणनाम से भी कहा जाता है और उसकी अवस्था तथा स्थान को गुणस्थान कहा जाता है। जैन दर्शन में मनुष्य की मनोभूमि तथा आत्मभूमि पर उत्पन्न होने वाली विभिन्न हज़ारों-लाखों मनोभावनाओं तथा भावों की खोज की गई और पाया गया कि जिस जैन धर्म एक झलक 47 -

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