________________
स्वयं को साक्षात्कार करने की शक्ति पर आवरण डाल देता है। वेदनीय कर्म के कारण जीव सुख-दुःख का वेदन करता है। मोहनीय कर्म आत्मा को मोही बनाकर रखता है। आयुकर्म हमें शरीर में कब तक टिके रहना है, यह निश्चित करता है। नामकर्म के कारण हमारा शरीर बनता है; हमारे सुंदर - असुंदर होने का कारण यही कर्म है। गोत्र कर्म के कारण हमारा जन्म ऊँचे या नीचे गोत्र में होता है। अंतराय कर्म का काम है हर काम में बाधा पहुँचाना। इन सभी कर्मों के भेद-प्रभेद बहुत हैं और उनकी अपनी अलग परिभाषाएँ हैं। हम देखें तो पाएँगे कि हमारा जीवन और उसमें होने वाली घटनाएँ इन्हीं कर्मों की अभिव्यक्ति हैं। जीव विज्ञान के वैज्ञानिक यह मानते हैं कि हमारे डी० एन०ए०, जीन्स में गर्भावस्था में ही यह निश्चित होता है कि हम क्या बनेंगे ? हमारा रूप, लंबाई, कैसी होगी ? बुद्धि कैसी होगी ? स्वभाव कैसा होगा इत्यादि? ये सारी बातें कर्मों की सत्यता को प्रमाणित करती प्रतीत होती हैं।
भगवान महावीर ने यह बताया कि आत्मा तप, संयम और स्वसन्मुख शुद्धात्मा के पुरुषार्थ द्वारा सत्ता में पड़े पाप कर्मों को बंध अवस्था में ही उदय में आने से पहले पुण्य कर्मों में बदल सकता है और अधिक पुरुषार्थ करे तो इन सभी शुभ-अशुभ कर्मों का नाश करके परमात्म पद को प्राप्त कर सकता है। वे पुण्य को सोने की तथा पाप को लोहे की बेड़ी मानते थे। उनका मानना था कि यदि पक्षी को सोने के पिंजरे में भी रखा जाए तब भी परतंत्रता का ही अनुभव करता है और स्वतंत्र होना चाहता है। बंधन दुःख देता है चाहे वह जैसा भी हो। जैन धर्म के कर्मों की सूक्ष्मता समझाते हुए सैकड़ों विशाल आगम ग्रंथ लिखे गए हैं। वे ग्रंथ इतने कठिन हैं कि उस विषय को समझनेसमझाने वाले आज दुर्लभ हो गए हैं।
अतः हम सभी को अपने भावों का ध्यान रखना चाहिए और उसे शुभ-अशुभ से हटाकर साम्य भाव में लाने का प्रयास करना चाहिए तभी हम सुखी हो सकते हैं।
00
46
जैन धर्म एक झलक