Book Title: Jain Dharm Ek Zalak
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Shantisagar Smruti Granthmala

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Page 59
________________ निमित्त पाकर आत्मा से चिपक जाते हैं और निश्चित समय के लिए वहाँ ठहर जाते हैं। फलतः आत्मा अशुद्ध हो जाती है और कर्मबद्ध कहा जाने लगता है। वस्तुतः आत्मा का स्वभाव तो ऊर्ध्वगमनत्व (ऊपर जाने वाला) है किंतु कर्मों के कारण वह बोझिल हो जाती है और इस संसार में ही भटकता रहती है। सुख दुःख का कर्ता कौन? कर्म कभी शुद्ध नहीं होते। वे आत्मा को सुखी या दुःखी कर देते हैं। कर्मों की इस विचित्र कहानी में जानने लायक बात यह है कि यह श्रृंखला अनादि काल से आत्मा के साथ चल रही है। हम पहले शुभ या अशुभ खुद ही भाव करते हैं और कर्म बाँधते हैं फिर जब ये कर्म अपना समय पूरा करके उदय में आते हैं तब हमें स्वयं ही सुखी-दुःखी कर देते हैं। अब यहाँ यह बात कहाँ से आई कि किसी दूसरे ने हमें सुखी या दुःखी कर दिया। हाँ; दूसरे दुःख या सुख में निमित्त ज़रूर बनते हैं किंतु अध्यात्म जगत् में निमित्त को कर्ता व्यवहार की भाषा में ही कहा जाता है, वास्तव में वह कर्ता होता नहीं है। जैसे पत्थर से ठोकर लगे और हम गिर जाएँ तो पत्थर निमित्त होता है किंतु गिरने और दुःख पाने के कर्ता हम स्वयं होते हैं। वहाँ पत्थर के दोष देने वालों को अज्ञानी ही कहा जाएगा। गहराई से देखें तो कर्म भी हमारे सुख-दुःख रूप परिणाम के निमित्त ही हैं; असली कर्ता और भोक्ता तो हमारा चेतन स्वभावी आत्मा ही होता है। हमारी आत्मा में शुभ भाव, अच्छे भाव उत्पन्न होंगे तो शुभ कर्म बँधेगे और जब वे उदय में आएँगे तो हमें यश, सफलता, उन्नति, ऐश्वर्य, संपदा और वे सब जो हमारे सुखों के अनुकूल हों, देंगे और जब हम अशुभ भाव; जैसे- किसी दूसरे का बुरा सोचना इत्यादि करेंगे तो अशुभ कर्म बंधेगे और जब वे उदय में आएँगे तो हमें अनायास दुःख, विफलता, अपयश, निर्धनता इत्यादि प्रतिकूल वातावरण प्रदान करेंगे। इसी आधार पर भगवान महावीर ने आत्मा के पुरुषार्थ पर बल दिया और कहा कि 'अप्पा कत्ता विकत्ता य, सुहाण य दुहाण य' अर्थात् आत्मा अपने सुखदुःख का कर्ता, भोक्ता स्वयं ही है। किसी दूसरे में यह ताकत नहीं है कि आत्मा को सुखी या दुःखी बना दे। हमारे द्वारा बाँधे गए कर्म अड़तालीस मिनट से कुछ कम समय अर्थात् कम से कम एक अंतर्मुहूर्त में या अधिक से अधिक अगले जन्मों में कभी भी उदय में आकर हमें फल दे सकते हैं। इसलिए वर्तमान में भोग रहे दुःखों या सुखों का साक्षात् कारण खोजना कि यह किन कर्मों का फल है, बहुत मुश्किल है। इस तथ्य की सच्चाई मात्र सर्वज्ञ परमात्मा को ज्ञात होती है, जो परम वीतरागता की अवस्था में हैं। कर्मों का प्रभाव-इन कर्मों का अपना अलग-अलग प्रभाव है। ज्ञानावरणी कर्म हमारी ज्ञान-शक्ति पर पर्दा लगाकर बैठ जाता है। इसके कारण हमें सम्यक् ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती है। दर्शनावरणी कर्म आत्मा के जैन धर्म-एक झलक

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