Book Title: Jain Dharm Ek Zalak
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Shantisagar Smruti Granthmala

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Page 57
________________ (9)निर्जरा- “फल देकर बँधे हुए कर्मों का झर जाना निर्जरा है। तपस्या से पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा जल्दी हो जाती है तथा नए कर्म नहीं बँधते।" -इस प्रकार की भावना निर्जरान्प्रेक्षा है। ऐसा विचार करके जीव तपस्या की प्रवृत्ति करता है। (10) लोक- “लोक के स्वभाव का चितवन करना कि यद्यपि लोक अनादिनिधन और अकृत्रिम है तो भी इसमें स्थित प्राणी नाना दुःख उठा रहे हैं। ऐसा चितवन करने से तत्वज्ञान की विशुद्धि होती है। यह लोकान्प्रेक्षा है। (11) बोधिदुर्लभ- “चौरासी लाख योनियों में यह मनुष्य योनि मिलना, मनुष्य योनि मिलने पर भारत जैसा देश मिलना, देश मिलने पर उच्च कुल, गोत्र मिलना, इसके भी बाद धर्म संस्कार मिलना, तत्वोदेश मिलना उत्तरोत्तर महान दुर्लभ है। बहुत पुण्य के प्रताप से यह सब प्राप्त होता है, अतः इसका आत्म-कल्याण में उपयोग करना चाहिए।" ऐसी भावना से बोधि को प्राप्त करके भी यह जीव प्रमादी नहीं होता। (12) धर्म- “भगवान ने जिस धर्म का उपदेश दिया है, उसका लक्षण अहिंसा है, उसकी पुष्टि सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, विनय, क्षमा, विवेक आदि धर्मों व गुणों से होती है। जो प्राणी इसे धारण नहीं करता उसे संसार में भटकना पड़ता है।" इस प्रकार चिंतन करना धर्मानुप्रेक्षा है। इससे धर्म के प्रति अनुराग बढ़ता है। इस प्रकार इन बारह भावनाओं के अनुशीलन से धर्म की साधना करने वाले साधकों की धर्म में स्थिरता बढ़ती है। विरक्ति का भाव विकसित होता है। इन बारह भावनाओं को लेकर कवियों ने अनेक पद्यमय दोहे, कविताएँ व गीत लिखे हैं जो जनजन के कंठ में बसे हैं। उनमें से यह अनित्य भावना का दोहा बहुत प्रसिद्ध है राजा राणा छत्रपति हाथिन के असवार। मरना सबको एक दिन अपनी अपनी बार। दाम बिना निर्धन दुःखी, तृष्णावश धनवान। कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान॥ 00 जैन धर्म-एक झलक

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