Book Title: Jain Dharm Ek Zalak
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Shantisagar Smruti Granthmala

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Page 62
________________ प्रकार व्यक्ति का शारीरिक, बौद्धिक या मानसिक विकास होता है वैसे ही आध्यात्मिक विकास भी होता है। वैसे तो आत्मिक विकास की तारतम्यता को मापना टेढ़ी खीर है किंतु जैनाचार्यों ने गहन शोध करके तथा स्वयं अनुभूतिपूर्वक इस गहराई को समझा है और उसे करणानुयोग विषयक ग्रंथों में चौदह गुणस्थान नाम से व्याख्यापित किया है। गुणस्थान मोह और मन, वचन, काय की प्रवृत्ति के द्वारा आत्मा में होने वाले विभिन्न भावों तथा परिणामों की तारतम्यता रूप अवस्था को गणस्थान कहा जाता है। जीव के परिणाम सदा एक से नहीं रहते। मोह के कारण तथा मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति के कारण आंतरिक परिणामों (भावों) में प्रतिक्षण उतार-चढ़ाव चलता रहता है। गुणस्थान का काम है इस उतार-चढ़ाव का बोध कराना। साधक व्यक्ति अभी किस स्तर तक पहुँचा है उसे और कितना चलना है; क्या सावधानी रखनी है? इत्यादि बातों को बताने वाला गुणस्थान उस ग्राफ़ की तरह है जिसमें उतार-चढ़ाव स्पष्ट दिखाई दे जाते हैं। चौदह सोपान गुणस्थान चौदह प्रकार के माने गए हैं। ये आध्यात्मिक सीढ़ी हैं। इनके चौदह सोपानों को हम निम्न प्रकार से समझेंगे (1) मिथ्यात्व- यह पहला गुणस्थान है। यह आत्मा की सबसे अधिक निम्न अवस्था है। यहाँ पर रहने वाला जीव मिथ्यादृष्टि कहलाता है। ये अज्ञान में जीते हैं, इन्हें अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं होता। भोगों में आसक्त होते हैं। शरीर और आत्मा को एक मानते हैं अथवा आत्मा को मानते ही नहीं हैं। मिथ्यात्व अवस्था में जीव अज्ञानवश राग-द्वेष से युक्त मनुष्यों को देव मान लेता है; पाप का उपदेश देने वाले पुस्तकों को शास्त्र मान लेता है तथा पाखंडी को भी सच्चा साधु मानकर इन तीनों की पूजा करता है। इस दशा में अंनत संसार को बाँधने वाली क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों की प्रधानता रहती है। यह बहिरात्मा कहलाता है। (2) सासादन- सासादन गुणस्थान जीव के मिथ्यात्व दशा के ऊपर जाते समय नहीं आता, बल्कि ऊपर से गिरकर आता है। चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक्त्व का स्वाद चखने के बाद किसी कारण वहाँ से गिरा तो इस गुणस्थान में कुछ समय के लिए आता है। फिर पुनः मित्थात्व (1) में चला जाता है। (3) मिश्र- मिश्र गुणस्थान का अर्थ है- सम्यक्त्व और मिथ्यात्व की मिलीजुली अवस्था। इस अवस्था में जीव न तो पूरा सम्यग्दृष्टि रहता है और न ही पूरा मिथ्यादृष्टि। यह दुविधा वाली स्थिति रहती है। इस जगह विवेक शक्ति पूर्ण विकसित | जैन धर्म-एक झलक

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