Book Title: Jain Dharm Ek Zalak
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Shantisagar Smruti Granthmala

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Page 58
________________ (13 जीवन का सूत्र : कर्म विज्ञान कर्मों का खेल बहुत ही विचित्र है। हमारे पूर्व संचित कर्मों के कारण ही हमें जीवन में अनुकूलताएँ और प्रतिकूलताएँ देखने को मिलती हैं। कोई जन्म से ही सोने की थाली में खाना खाता है तो किसी को दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने में ज़िंदगी लग जाती है। कोई जन्म से ही तीव्र बुद्धि वाला होता है तो कोई लाख कोशिश करे तो भी ज्ञान की बात उसके पल्ले नहीं पड़ती। भारतीय संस्कृति में यह सब पूर्वकृत पापपुण्य का फल माना जाता है। भारत की यह विशेषता है कि दर्शन यहाँ के जनमानस में स्थापित है। 'जैसी करनी वैसी भरनी', 'बोया बीज बबूल का तो आम कहाँ से होय', 'कर्म प्रधान विश्व करि राखा' इत्यादि सूक्तियाँ, दोहे हम जन्म से अपने दादा-दादी के मुख से सुनते आए हैं और वे कोई बहुत बड़े दार्शनिक नहीं थे। जैन धर्म ने मनुष्य के सुख तथा दुःख के कारणों की खोज की और पाया कि मनुष्य अपने सुख और दुःख का कारण स्वयं है। कोई दूसरा उसे सुखी या दुःखी कर ही नहीं सकता। निःसंदेह यदि कोई हमारा बुरा कर रहा है तो ये उसके स्वयं के बुरे कर्म हैं किंतु यदि वह इस कार्य में सफल हो रहा है तब यह हमारे बुरे कर्मों का उदय है। कर्मों के प्रकार जैन दर्शन ने कर्मों को मुख्य रूप से आठ भागों में विभाजित करके समझाया है। उसके अनुसार कर्म की मूल रूप से आठ प्रकृतियाँ हैं, जो प्राणियों को अनुकूल और प्रतिकूल फल प्रदान करती हैं। ये आठ प्रकृतियाँ हैं (1)ज्ञानावरणी कर्म (2) दर्शनावरणी कर्म (3)वेदनीय कर्म (4) मोहनीय कर्म (5)आयु कर्म (6) नाम कर्म (7)गोत्र कर्म (8)अंतराय कर्म इनमें वेदनीय, आयु, नाम तथा गोत्र कर्म अघातिया (स्वयं नष्ट होने वाले) हैं तथा शेष घातिया (नष्ट किए जाने वाले) कर्म हैं। जैन धर्म के अनुसार कर्म एक अजीव तत्व है। हमारे आसपास के वातावरण में पुद्गल परमाणुओं का घना जाल है। वे इतने सूक्ष्म होते हैं कि हमें दिखलाई नहीं देते, उन ही सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओं में कुछ पुद्गल परमाणुओं की योग्यता कर्मों के रूप में बदल जाने की होती है। हमारी आत्मा में जो कि वास्तविक रूप से तो नितांत शुद्ध है, शुभ या अशुभ भाव अकसर उत्पन्न होते ही रहते हैं। हमारी आत्मा में ये भाव राग और द्वेष के कारण उत्पन्न होते हैं। जैसे ही विशुद्ध आत्मा के शुभ या अशुभ रूप भाव उत्पन्न होते हैं, वैसे ही कर्म रूप होने योग्य पुद्गल परमाणु आत्मा के इन भावों का । जैन धर्म-एक झलक

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