Book Title: Jain Dharm Ek Zalak
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Shantisagar Smruti Granthmala

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Page 56
________________ कोई नहीं है।” इस प्रकार का चिंतवन करना अशरणानुप्रेक्षा है। ऐसा विचार करने से परावलंबन तथा संसार से, ममता से छूटकर धर्म में आस्था उत्पन्न होती है। (3) संसार - "स्वर्ग, नरक और मनुष्य लोक इस प्रकार इन तीन भागों में प्रभाजित यह संसार है, जिन्हें त्रिलोक कहते हैं। अनेक बार जन्म-मरण करता हुआ तीनों लोकों में, चौरासी लाख योनियों में भटका हूँ किंतु कभी आत्मा का अनुभव नहीं किया। आत्मा के अनुभव बिना इस दुःख रूपी संसार से कोई पार नहीं लगा सकता।" इस प्रकार की भावना संसारानुप्रेक्षा है। इससे संसार का सच्चा स्वरूप पता लगने से व्यक्ति उसमें आसक्त नहीं होता। ( 4 ) एकत्व- “मैं अकेला ही जन्मता हूँ और अकेला ही मरता हूँ। स्वजन या मित्रजन ऐसा कोई नहीं जो मेरे दुःखों को हर सके। कोई भाई हो चाहे मित्र, सब श्मशान तक ही साथी हैं। एक धर्म ही मेरा साथ दे सकता है। आत्म-धर्म मेरे साथ जाएगा।" ऐसी भावना एकत्वानुप्रेक्षा है एक भावना से न स्वजनों में ज़्यादा प्रीति और न परजनों से द्वेष होता है। एक सच्चा अकेलापन मिलता है, जो निराशा नहीं देता बल्कि परमात्म मिलन की आशा उत्पन्न करता है। (5) अन्यत्व - "शरीर जड़ है, मैं चेतन है, शरीर अनित्य है, मैं नित्य हैं, संसार में परिभ्रमण करते हुए मैंने हज़ारों शरीर धारण किए, परंतु में जहाँ का तहाँ हूँ।" इस प्रकार शरीर एवं बाह्य पदार्थों से अपने को भिन्न चिंतवन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। ऐसा चिंतवन करने से शरीर में स्पृहा नहीं होती, किंतु यह प्राणी तत्वज्ञान की भावना करता हुआ वैराग्य में अपने को जुटाता है, जिससे मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है। (6) अशुचि - "यह शरीर अत्यंत अपवित्र है, रोगों की खान है, यह शुक्रशोणित आदि सात धातुओं और मल-मूत्र आदि से भरा हुआ है। इसका कितना भी स्नान हो, तेल, उबटन, इत्र इत्यादि का प्रयोग करें, इसकी स्वाभाविक अशुचिता दूर नहीं हो सकती।" ऐसी भावना करने से शरीर से वैराग्य होता है और जीव शरीर में आसक्त न होकर शुद्ध आत्मा की तरफ़ बढ़ता है। (7) आस्रव "इंद्रिय, कषाय, अनंत आदि इहलोक और परलोक दोनों में दुःखदायी हैं। इनके कारण आत्मा में कर्मों का आस्रव होता है।” इस प्रकार का चितवन करना आस्रवानुप्रेक्षा है। इससे आत्मा के क्षमादि धर्मों में प्रवृत्ति बढ़ती है और क्रोध, मान, माया, लोभ, इंद्रिय भोग आदि घटते हैं। ( 8 ) संवर- " संवर का अर्थ है- कर्मों के आने को रोकना । इंद्रिय संयम, मन वचन काय का संयम तथा कषायों का अभाव करने से कर्म आत्मा में नहीं आते हैं।" - ऐसी भावना संवरानुप्रेक्षा है। इससे आत्मा में कर्मों की गंदगी नहीं बढ़ती है। 42 जैन धर्म एक झलक

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