Book Title: Jain Dharm Ek Zalak
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Shantisagar Smruti Granthmala

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Page 52
________________ इन सोलह स्वर्गों में दो-दो में संयुक्त राज्य हैं। इस कारण सौधर्म ईशान आदि दो-दो स्वर्गों का एक-एक युगल है। आदि के दो तथा अंत के दो, इस प्रकार चार युगलों में आठ इंद्र हैं और मध्य के चार युगलों में चार ही इंद्र हैं। अतएव इंद्रों की अपेक्षा स्वर्गों के बारह भेद हैं। उपर्युक्त सोलह स्वर्गों में अनेक विमान हैं। अपने-अपने अंतिम इंद्रक विमान संबंधी ध्वजदंड के अग्रभाग तक उन-उन स्वर्गों का अंत समझना चाहिए। कल्पातीत भूमि का जो अंत है वही लोक का अंत कहलाता है। लोक के अंत से बारह योजन नीचे सर्वार्थसिद्धि विमान है। सर्वार्थसिद्धि विमान के ध्वजदंड से 29 योजन 425 धनुष ऊपर सिद्धलोक (मोक्ष) है। यहाँ मुक्त जीव अवस्थित हैं। उसके बाद लोक का अंत आता है। इस प्रकार जैन धर्म विषयक साहित्य में उपलब्ध स्वर्ग-नरक संबंधी विवेचन यहाँ सामान्य रूप में प्रस्तुत किया गया है। विशेष विवेचन तत्वार्थसूत्र एवं उसके टीकाग्रंथ तथा तिलोयपण्णत्ति आदि अन्यान्य करणानुयोग विषयक ग्रंथों में देखा जा सकता है। 00 जैन धर्म की प्राचीनता "बौद्ध धर्म की अपेक्षा जैन धर्म अधिक, बहुत अधिक प्राचीन है, बल्कि यह उतना ही पुराना है, जितना वैदिक धर्म। जैन अनुश्रुति के अनुसार मनु चौदह हुए हैं। अंतिम मनु नाभिराय थे। उन्हीं के पुत्र ऋषभदेव हुए, जिन्होंने अहिंसा और अनेकांतवाद आदि का प्रवर्तन किया। भरत ऋषभदेव के ही पुत्र थे, जिनके नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा।" -राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' संस्कृति के चार अध्याय, पृ० 101 । जैन धर्म-एक झलक

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