Book Title: Jain Dharm Ek Zalak
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Shantisagar Smruti Granthmala

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Page 44
________________ व्यावहारिक दृष्टि से अहिंसा को कई तरह से आचरण योग्य समझाया गया है। इसके लिए हिंसा को दो रूपों में विभाजित किया है(i) भाव हिंसा (ii) द्रव्य हिंसा किसी को जान से मारने, सताने या दुःख देने का मन में विचार भी करना ‘भाव हिंसा' है और किसी को जान से मार देना, सताना या दःख पहुँचा देना, द्रव्य हिंसा है। अतः जैन धर्म के अनुसार किसी भी जीव को दुःख पहुँचाने, उसे सताने तथा उसके प्राण हरण कर लेने की बात मन में सोचनी तक नहीं चाहिए। मन में विचार मात्र लाने पर सर्वप्रथम हमारी आत्मा कलुषित होती है और यह सबसे बड़ी हिंसा है। हम भाव हिंसा से बचकर द्रव्य हिंसा से स्वतः बच सकते हैं। अतः हमें न हिंसा करनी चाहिए, न किसी और से करवानी चाहिए और न ही हिंसा का समर्थन करना चाहिए। (2) सत्याणुव्रत-जीवन में सत्य का महत्व बहुत है। अतः अहिंसा के लिए सत्य का पालन भी करना चाहिए। चूँकि गृहस्थ जीवन में झूठ का पूर्ण त्याग संभव नहीं है, अतः गृहस्थ ऐसे झूठ का सर्वथा त्याग करता है जिसके कारण प्रतिष्ठा चली जाए, वह अप्रामाणिक बन जाए, वह राजदंड का भागी बन जाए या फिर जनता का अहित हो। झूठ बयान, नकली हस्ताक्षर, द्विअर्थी संवाद, चुगली, झूठा आरोप तथा दूसरों की निंदा इत्यादि करना झूठ के अंतर्गत ही आता है। गृहस्थ इन स्थूल झूठों का सर्वथा त्यागी होता है। गृहस्थ अपनी अहिंसा भावना की रक्षा के लिए जहाँ तक बन सके वहाँ तक हित-मित और प्रिय वचनों का ही प्रयोग करे, यही सत्याणुव्रत है। (3)अचौर्याणुव्रत-जिस वस्तु पर हमारा अधिकार नहीं है उस पराई वस्तु को किसी से बिना पूछे ग्रहण कर लेना चोरी है। जब किसी की कोई चीज़ चोरी हो जाती है तब उसे बहुत मानसिक पीड़ा होती है। इससे अहिंसा भावना की रक्षा नहीं हो सकती। अतः चोरी का त्याग करना ही चाहिए। वर्तमान में जो भ्रष्टाचार व्याप्त है, घोटालों से दामन रँगे हुए हैं; रिश्वत का बोलबाला है, यह सब अचौर्याणव्रत नहीं पालने के कारण है। कई बार खुद चोरी न कर चोरी का समर्थन करते हैं, विधि बतलाते हैं और दूसरों को चोरी के लिए उत्साहित करते हैं, यह सब दोषपूर्ण है। इससे खुद की शान नहीं बढ़ती बल्कि शांति भंग होती है। चोरी का माल खरीदना-बेचना, राजकीय नियमों का उल्लंघन करना, गलत नापना या तौलना, मिलावट करना -ये सब चोरी है। अचौर्याणुव्रत का पालन करने वाला इन सबसे दूर रहता है। (4) ब्रह्मचर्याणुव्रत- मैथुन सेवन के त्याग को ब्रह्मचर्य कहते हैं। गृहस्थावस्था में पूर्ण ब्रह्मचर्य संभव नहीं है। अतः वह धर्मानुसार विवाह करके धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ की पूर्ति कर सकता है। परस्त्री को देखकर मन में विकार न आना, स्वपत्नीसंतोषव्रत का पालन करना तथा पत्नी भी अपने पति के अतिरिक्त कहीं | जैन धर्म-एक झलक

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