Book Title: Jain Dharm Ek Zalak
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Shantisagar Smruti Granthmala

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Page 43
________________ (iii) विरोधी हिंसा - अपने राष्ट्र, धर्म, परिवार या स्वयं पर कोई घातक हमला करे तब लाख रोकने की कोशिश करने पर भी मजबूरी में जो आत्म- दुश्मनों के प्रति आत्मरक्षा के भाव से हिंसा हो जाती है, वह विरोधी हिंसा कहलाती है। (iv) संकल्पी हिंसा उपरोक्त तीन प्रकार की हिंसाएँ गृहस्थ जीवन में हो ही जाती हैं, अतः अणुव्रती इनसे तो बच नहीं सकता। चतुर्थ संकल्पी हिंसा है जिसका अर्थ है कि पूर्व नियोजित रूप से स्वार्थ के लिए मन में संकल्पपूर्वक किसी को दुःख पहुँचाना या उसके प्राणों का हरण कर लेना । अणुव्रती गृहस्थ को कम से कम संकल्पी हिंसा का पूर्ण त्याग होता है। मांसाहार न करना तथा सदैव शुद्ध आहार लेना भी अहिंसाणुव्रत है। - 'अहिंसा' जैन धर्म का प्राण है। कई बार जैन धर्म और अहिंसा धर्म को आपस में पर्यायवाची भी कहा जाता है उसका कारण यह है कि अहिंसा की जितनी सूक्ष्म और गहरी व्याख्या जैन धर्म में है उतनी विश्व के किसी धर्म में नहीं है। विश्व के लगभग सभी धर्म अहिंसा को मानते हैं और उसकी व्याख्या अपने-अपने तरीके से करते हैं। 'अहिंसा परमो धर्मः ' वाक्य मूलतः महाभारत का है किंतु जैन धर्म ने इसे इस तरह अपनाया कि यह इसी का नारा बन गया है। मुझे यहाँ यह कहने से ज़रा भी संकोच नहीं है कि अन्य सभी धर्मों की अहिंसा की व्याख्या जहाँ समाप्त होती है, जैन धर्म की अहिंसा वहीं से प्रारंभ होती है। स्थूल हिंसा को तो सभी धर्म हिंसा मानते ही हैं, किंतु आश्चर्य तब होता है जब जैन धर्म अन्य धर्मों की 'अहिंसा' में भी 'हिंसा' समझा देता है। उदाहरण के तौर पर 'प्यार', 'मुहब्बत', 'इश्क' या 'राग' को कौन-सा धर्म है जो 'अहिंसा' न कहे । अहिंसा को समझाते समय इन्हीं तत्वों की व्याख्या की जाती है। किंतु जैन धर्म की यह मौलिक खोज है कि 'द्वेष' का कारण 'राग' ही है, इसलिए 'राग' हिंसा की पहली सीढ़ी है। इसीलिए आपने देखा होगा कि जैन अपने भगवान को 'वीतरागी' कहते हैं, न कि 'वीतद्वेषी' राग भाव में धर्म मानना जैन धर्म के अनुसार मिथ्यात्व है। सुप्रसिद्ध जैनाचार्य अमृतचंद्र जी ने 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' नामक ग्रंथ में स्पष्ट लिखा है अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिः हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ अर्थात् आत्मा में राग-द्वेषादि की उत्पत्ति नहीं होना ही अहिंसा है और उनकी उत्पत्ति ही हिंसा है, ऐसा जिनागम का सार है। कहने का तात्पर्य यह है कि रागी मनुष्य कभी पूर्ण अहिंसक बन ही नहीं सकता, उसके लिए वीतरागी बनना आवश्यक है। जैन धर्म एक झलक 29

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