Book Title: Jain Dharm Ek Zalak
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Shantisagar Smruti Granthmala

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Page 34
________________ इसी प्रकार विश्व का प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। जो (स्वरूपतः) मूलरूप में कभी नष्ट नहीं होता। बस उसकी अवस्था या पर्याय बदलती रहती है। द्रव्य के भेद प्रमुख रूप से संपूर्ण सृष्टि में दो प्रकार के द्रव्य पाए जाते हैं(1 ) जीव (2) अजीव (जड़) अजीव द्रव्य के पाँच भेद हैं(1) पुद्गल (2) धर्म (3) अधर्म (4) आकाश (5) काल इस प्रकार एक जीव तथा पाँच अजीव द्रव्य मिलाकर कहा गया‘षड्द्द्रव्यात्मको लोकः ' । अर्थात् यह संपूर्ण सृष्टि (लोक) या विश्व इन्हीं छह द्रव्यों से बना है। इन छह द्रव्यों के अलावा सातवाँ कोई द्रव्य इस विश्व में नहीं है। इनके अतिरिक्त यदि किसी भी द्रव्य का उल्लेख किया जाएगा तो उसका अंतर्भाव इन छह द्रव्यों में से किसी एक में अवश्य हो जाएगा। जीवद्रव्य जो ज्ञान दर्शन स्वभाव वाला चेतना से युक्त है, वह जीव है। पेड़-पौधों से लेकर स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत (कान) इन पाँच इंद्रियों वाले मनुष्यों तक सभी जीव हैं। जैन धर्म में इस लोक में रहने वाले छोटे-बड़े सभी जीवों के जितनी सूक्ष्मता से भेद-प्रभेद बताए गए हैं और उनकी वैज्ञानिक व्याख्याएँ प्रस्तुत की गई हैं, उतनी शायद ही किसी अन्य धर्म में की गई हों। जीव-विज्ञान की सभी शाखाओं के बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी करोड़ों वर्ष प्राचीन जैन धर्म की इन जीव संबंधी अवधारणाओं को पढ़कर आश्चर्यचकित हैं। जो खोज वे उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में कर पाए; या इक्कीसवीं सदी में कर पाएँगे उसकी जानकारी जैनाचायों को आरंभ से ही थी । प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक जगदीशचंद्र बसु ने बीसवीं शती के आरंभ में खोज की कि पेड़पौधों आदि सभी वनस्पतियों में जीवन है। किंतु जैनों को यह सुनकर आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि वह हमेशा से ही वनस्पति को सजीव मानते आए हैं और इन कायिक जीवों की हिंसा से बचने का प्रयास करते आए हैं। इसलिए संपूर्ण वनस्पति तो एकेंद्रिय जीव है ही, पानी, वायु, आग और पृथ्वी भी एकेंद्रिय जीव हैं - इसलिए यह जैन धर्म के लिए कोई नया अनुसंधान नहीं है। जीव के भेद सबसे पहले ‘संसारी और मुक्त कहकर जीव के दो भेद किए गए हैं। फिर पुनः समझाने की दृष्टि से संसारी जीवों के इंद्रियों की संख्या के आधार पर जैनाचार्यों ने दो प्रमुख भेद किए (i) त्रस (ii) स्थावर 20 जैन धर्म - एक झलक

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