Book Title: Jain Dharm Ek Zalak
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Shantisagar Smruti Granthmala

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Page 32
________________ किंतु आशवाश खोया ज्ञान, बना भिखारी निपट अजान।।2।। सुख-दुख दाता कोई न आन, मोह राग रुष दुःख की खान। निज को निज पर को पर जान, फिर दुःख का नहीं लेश निदान।।3।। जिन शिव ईश्वर ब्रह्मा राम, विष्णु बुद्ध हरि जिनके नाम । राग त्याग पहुँचे निज धाम, आकुलता का फिर क्या काम।।4।। होता स्वयं जगत् परिणाम, मैं जग का करता क्या काम। दूर हटो परकृत परिणाम, ‘सहजानंद' रहूँ अभिराम।।5।। 00 डॉ० परिपर्णानंद वर्मा के विचार “मेरा विश्वास है कि बिना हिंदू बने जैनी श्रेष्ठ जैनी बन सकता है, पर बिना जैन-आचार-संहिता को अपनाए मैं अच्छा हिंदू नहीं बन सकता। हमने जैन धर्म से उसका अध्यात्मवाद लेकर अपने विशाल धर्म को विशालतम बना लिया है। जैनियों ने इससे कर्मकांड लेकर अपने को कुछ आगे बढ़ाया- ऐसा मैं नहीं मानता।" -वर्धमान महावीर स्मृति ग्रंथ-2002, __जैन मित्र मंडल, दिल्ली से प्रकाशित | जैन धर्म-एक झलक ।

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