Book Title: Jain Dharm Ek Zalak
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Shantisagar Smruti Granthmala

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Page 29
________________ और आर्यिका संघ को संयमाचरण के पथ पर निरंतर आगे बढ़ाने में प्रेरक हैं, वे आचार्य कहलाते हैं। ऐसे उन सभी आचार्यों को, जो शुद्धाचरणपूर्वक धर्मवृद्धि तथा तपस्या में संलग्न हैं, उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ। णमो उवज्झायाणं अर्थात् लोक के सभी उपाध्यायों को मेरा नमस्कार । सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र की प्रकर्षता से जो साधु आगम के ज्ञाता हैं तथा संघ में सभी संयमियों को आगमशास्त्र पढ़ाने का कार्य करते हैं, वे उपाध्याय कहलाते हैं। इन अर्हताओं से संपन्न ऐसे ज्ञानी मुनियों को, वे चाहे जिस नाम से हों, मैं नमस्कार करता हूँ। णमो लोए सव्व-साहूणं अर्थात् लोक के सभी साधुओं को मेरा नमस्कार । ज्ञान, दर्शन और चारित्र का पालन करने वाले, अट्ठाईस मूलगुणों के धारी, जगत् के सभी प्रपंचों से मुक्त आत्मकल्याण में संलग्न ऐसे राग-द्वेष से रहित वीतरागी पुरुष साधु कहलाते हैं। ऐसा पालन करने वाले लोक के सभी साधुओं को उनका नाम चाहे कुछ भी हो, मैं अंतर्मन से नमस्कार करता हूँ। इस प्रकार यह पंच नमस्कार मंत्र सार्वभौमिक तथा सार्वकालिक है। इसमें किसी व्यक्ति की आराधना करके उसे संकुचित नहीं किया गया है बल्कि गुणों की आराधना करके उसे व्यापकता प्रदान की गई है। इस णमोकार मंत्र का उल्लेख पहली शताब्दी के आचार्य पुष्पदंत भूतबली द्वारा रचित षट्खंडागम नामक शौरसेनी प्राकृत आगमशास्त्र में हमें सर्वप्रथम मिलता है। भुवनेश्वर (ओडिशा) के निकट उदयगिरि खंडगिरि में ईसा पूर्व तृतीय शती में कलिंग सम्राट खारवेल द्वारा हाथीगुंफा शिलालेख में भी इस मंत्र के आरंभिक अंशों का उल्लेख है । इस सर्व सिद्धिदायक महामंत्र की विशेषता है कि इसको श्रद्धापूर्वक पढ़ने व जाप करने से समस्त पापों एवं बुराइयों का नाश स्वतः हो जाता है; मन तनावमुक्त हो जाता है; सभी कष्ट एवं विघ्न दूर हो जाते हैं। यह पंच नमस्कार मंत्र सारे पापों का नाश करने वाला है। इस मंत्र को सभी मंगलों में प्रथम मंगल कहा जाता है, इसलिए इस मंत्र के आगे इसका महात्म्य कहा जाता हैएसो पंच णमोक्कारो, सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं होदि मंगलं ॥ प्रार्थना जैन धर्म में भक्ति एवं स्तोत्र साहित्य भी बहुत विशाल है। प्राचीन काल में प्रार्थनाएँ प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश तथा विभिन्न लोक भाषाओं में की जाती थीं । अपभ्रंश भाषा में भी भगवान की स्तुतियाँ की गई हैं। पुरानी हिंदी और अलग-अलग प्रदेश की भाषाओं में स्तुति, भक्ति तथा प्रार्थना पूरे देश में पढ़ी जाती रही है। आधुनिक हिंदी में जैन धर्म - एक झलक 15

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