Book Title: Jain Dharm Ek Zalak
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Shantisagar Smruti Granthmala

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Page 24
________________ विलुप्त हो गए हैं और बारहवाँ अंग दृष्टिवाद का कुछ अंश ही बच पाया है, जिसे षट्खंडागम तथा कसायपाहुड़ के रूप में आचार्यों ने सुरक्षित करके जैन परंपरा को अनमोल ज्ञाननिधि से संपन्न कर दिया है। आचार्य कुंदकुंद ने भी आगमज्ञान की परंपरा के आधार पर समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, अष्टपाहुड़, वारसअणुवेक्खा, भक्तिसंग्रह आदि ग्रंथों की रचना की। इनके अनंतर आचार्य शिवार्यकृत ‘भगवती आराधना', आ० वट्टकेरकृत 'मूलाचार', आ० वसुनंदिकृत ‘उवासयाज्झयणं’, आ० नेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्तीकृत 'गोम्मटसार', त्रिलोकसार, लब्धिसार, क्षपणासार, आ० कार्तिकेय कृत कार्तिकेयानुप्रेक्षा, पद्मनंदि कृत जंबूद्दीवपण्णत्तिसंग्रहो तथा 'धम्मरसायण', देवसेनसूरीकृत लघुनयचक्र, आराधनासार, दर्शनसार, भावसंग्रह, तत्वसार, मुनि नेमिचंद्र सिद्धान्तिदेवकृत द्रव्यसंग्रह, माइल्लधवलकृत दव्वसहावपयास, पद्मसिंहमुनिकृत णाणसारो, श्रुतमुनिकृत ‘भावत्रिभंगी’ एवं ‘आस्रवत्रिभंगी' आदि प्रमुख ग्रंथ शौरसेनी प्राकृत भाषा साहित्य के अनमोल रत्न हैं । इनके अतिरिक्त आचार्यों ने आगम सदृश चारों अनुयोगों का विशाल साहित्य संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, कन्नड़, तमिल, मराठी आदि अनेक भाषाओं में रचकर भारतीय वाङ्मय की श्रीवृद्धि की है। श्वेतांबर आगम श्वेतांबर साधुओं ने भगवान महावीर की वाणी को संकलित करने के लिए अलग-अलग समय एवं स्थानों में वाचनाएँ कीं । 'जिसे जो याद है उसे एकत्रित कर लिया जाए' इस उद्देश्य से उन्होंने तीन बड़े साधु सम्मेलन किए। अंतिम बल की वाचना रूप साधु सम्मेलन के उपरांत उन्होंने आचारांग, सूत्रकृतांग आदि बारह अंगों में से ग्यारह अंगों को संकलित कर लेने में सफलता प्राप्ति की घोषणा की। उनके अनुसार आचारांग आदि ग्यारह मूल अंग आगम ग्रंथ आज तक सुरक्षित हैं और वे सभी अब उपलब्ध एवं प्रकाशित हैं। इन मूल अंग आगमों के अतिरिक्त उपांग आगम, उत्तराध्ययन आदि मूलसूत्र, छेदसूत्र आदि तथा इन पर रचित भाष्य, निर्युक्ति आदि व्याख्याओं के रूप में विपुल अर्धमागधी प्राकृत आगम साहित्य श्वेतांबर परंपरा में आज भी विद्यमान हैं। दिगंबर परंपरा ने इन उपलब्ध ग्यारह अंगों आदि के शत-प्रतिशत भगवान के मूल वचनों के होने में आशंका व्यक्त की और यह भी महसूस किया कि अपने मत की पुष्टि के लिए श्वेतांबरों ने इसमें ऐसे कई विषय संकलित कर दिए हैं जिनका स्पष्टतः भगवान महावीर की मूल वाणी से संबंध होना संभव नहीं लगता है। अतः उपलब्ध इन ग्यारह मूल अंगों और अन्य आगमों को दिगंबरों ने नहीं स्वीकारा, उनकी दृष्टि से मूल जैन धर्म - एक झलक 10

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