Book Title: Jain Dharm Ek Zalak
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Shantisagar Smruti Granthmala

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Page 20
________________ कुछ बौद्धों, सिखों और जैनों को यह परिभाषा अच्छी लगी, क्योंकि प्राचीन परंपरा जो हिंदू को एक संस्कृति के रूप में मानती थी- ऐसी ही थी। किंतु बाद में जब इस छद्म समन्वय में अन्य धर्मों के मूल स्वरूप के विलय की गंध आने लगी और समन्वय इस तर्क पर किया गया कि जैन एवं बौद्ध धर्म भी वैदिक धर्म से ही निकली हुई शाखाएँ हैं इसलिए हिंदू हैं तब कुछ अन्य भारतीय धर्मों को होश आया और उन्होंने विवश होकर यह कहा कि वे हिंदू नहीं हैं। इस प्रकार जिस हिंदू धर्म, जाति एवं हिंदुत्व की राजनैतिक छद्म परिभाषा आज के युग में चल रही है, उस दृष्टि से अन्य की तरह जैन भी निश्चित रूप से हिंदू नहीं हैं। हमेशा की तरह आज भी भारतवर्ष में जैन धर्म एक स्वतंत्र और संपूर्ण धर्म है। देश के प्रत्येक कोने में बसा जैन समाज एक स्वतंत्र समाज है। उनके स्वतंत्र मंदिर, स्वतंत्र आगम-शास्त्र, स्वतंत्र पूजा-पद्धति तथा स्वतंत्र जीवन-शैली, संस्कृति, कला एवं मान्यताएँ हैं। शुद्ध खान-पान, सिद्धांत, आचार-विचार, विशुद्ध शाकाहार और अहिंसा में विश्वास करने वाली, संयम-तप और नैतिक जीवन मूल्यों में आस्था वाली, मारकाट, दंगों, सांप्रदायिक हिंसा और भ्रष्टाचार आदि बुराइयों से दूर, शांतिप्रिय, शिक्षित, सभ्य, स्वदेश प्रेमी जैन समाज अपने इस प्यारे भारत देश में मानवीय मूल्यों की खुलकर होती त्रासदी तथा अंधविश्वासों के बीच एक प्रकाशपुंज है, जो भविष्य को सही रास्ता दिखा रहा है। 00 भारत की मूल संस्कृति __“मूलतः इस देश के निवासियों की एक ही संस्कृति थी, वह भी श्रमण संस्कृति। अनेक युग बीत गए। तब इस देश ने एक नई संस्कृति के दर्शन किए। इस संस्कृति में 'ईश्वर' नाम की एक ऐसी शक्ति की कल्पना की गई, जो इस जगत् का कर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता है। इसको प्रसन्न करने से हमारी कामनाओं की पूर्ति हो जाएगी। इसमें पुरुषार्थ के स्थान पर भाग्य की प्रधानता की गई थी।" -आचार्य श्री विद्यानंद जी मुनिराज, प्राकृत विद्या 7/4, पृ० 6 ईसा मसीह और जैन धर्म इतिहासवेत्ता पं० सुंदरलाल ने 'हजरत ईसा और ईसाई धर्म' नामक पुस्तक में लिखा है- “भारत में आकर हजरत ईसा बहुत समय तक जैन साधुओं के बीच रहे। तीन बातें ईसा ने कहीं- आत्म-श्रद्धा या आत्मविश्वास यानी तुम अपनी आत्मा को समझो, विश्व प्रेम और तीसरा जीव दया, ये सम्यक् दर्शन-ज्ञान और चारित्र का ही रूपांतर या प्रकारांतर महात्मा यीशू का सिद्धांत है।" -आचार्य विद्यानंद मुनिराज ( अमर उजाला, 25/12/07) | जैन धर्म-एक झलक

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