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जैनधर्म
रताको छोड़कर शान्तिसे भगवानका उपदेश सुनते थे। इस तरह भवान काशी, कोशल, पंचाल, कलिंग, कुरुजांगल, कम्बोज, वाल्हीक, हन्य, गाधार आदि देशोमें विहार करते हुए अन्तमें पावा नगरी बिहार) में पधारे। और वहाँले कार्तिक कृष्णा चतुर्दशीकी रानिमें अर्थात् अमावस्याके प्रातःकालमें सूर्योदयसे पहले मुक्तिलाम किया। सा कि लिखा है। 'उनतीस वर्ष, पांच मास और बीस दिनतक ऋषि, मुनि, यति और अनगार इन चार प्रकारके मुनियो और बारह गणो अर्थात् माओके साथ विहार करनेके पश्चात् भगवान महावीरने पावा नगरमे जतिक कृष्णा चतुर्दशीके दिन स्वाति नक्षत्रके रहते हुए, रात्रिके समय
अघोति कर्मरूपी रजको छेदकर निर्वाणको प्राप्त किया। । वर्तमानमे जो वीर निर्वाण सम्वत् जैनोमें प्रचलित है, उसके अनुर ५२७ ई० पू० में वीरका निर्वाण हुआ माना जाता है। कुछ चीन जन-ग्रन्थोमे शकराजासे ६०५ वर्ष ५ मास पहले वीरके सर्वाण होनेका उल्लेख मिलता है। उससे भी इसी कालकी पुष्टि जाती है।
१ पुज्यपाद रचित सस्कृत निर्वाणभक्तिमें लिखा है"वापुरस्य वहिनतभूनिदेशे पपोत्पलाकुलवता सरसा हि मध्ये।
वर्षनानजिनदेव इति प्रेतीतो निर्वाणमाप भगवान् प्रविवतमामा॥२४॥ ६ जयं-"पावापुरके बाहर स्पित, और कमलोसे व्याप्त सरोवर बीचमें, नेनत निदेशपर काँका नाग करके भगवान् महावीरने निर्वाण लाभ किया।'
२ "वासागूपत्तीतं पच र मासे व बीन दिवसे ।। चविह अगगारेहि य वारहदिहि (नहि) विहरिता ।। पच्छा पावाणयरे कत्तियनासन किण्हचोइसिए। मादीए रत्तीए मेसरयं हेतु मियाओ॥३॥"
-० धव० सं०, १,पृ०१। 'जिवाणे वीरजिणे उवाससदेतु पंचवरिमे। पणमामेमु गदेसु नजादो सुगणिो अहवा॥१४६ET"
-त्रि०प्र०