Book Title: Jain Dharm
Author(s): Sampurnanand, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Jain Sahitya

View full book text
Previous | Next

Page 294
________________ २६० सामाजिक रूप ३ यापनीय संघ जैनधर्मके दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायोंसे तो साधारणत सभी परिचित है। किन्तु इस बातका पता जनोमेसे भी कम है को है कि इन दोके अतिरिक्त एक तीसरा सम्प्रदाय भी था जिर यापनीय या गोप्यसंघ कहते थे। ___यह सम्प्रदाय भी बहुत प्राचीन है। दर्शनसारके' कर्ता श्रा देवसेनसूरिके कथनानुसार वि० सं २०५ मे श्रीकलश नामके श्वेता म्बर साधुने इस सम्प्रदायकी स्थापना की थी। यह समय दिगम्बर: श्वेताम्बर भेदकी उत्पत्तिसे लगभग ७० वर्ष बाद पडता है।। किसी समय यह सम्प्रदाय कर्नाटक और उसके आस पास बहुर प्रभावशाली रहा है। कदम्ब, राष्ट्रकूट और दूसरे वंशोंके राजाओन इसे और इसके आचार्योको अनेक दान दिये थे। यापनीय संघके मुनि नग्न रहते थे, मोरके पंखोंकी पिच्छी रखते थे और हाथम ही भोजन करते थे। ये नग्न मूर्तियोको पूजते थे और वन्दना करनेवाले श्रावकोंको 'धर्म-लाम' देते थे। ये सब बातें तं, इनमें दिगम्बरों जैसी ही थी, किन्तु साथ ही साथ वे मानते थे । स्त्रियोंको उसी भवमे मोक्ष हो सकता है और केवली भोजन कर है। वैयाकरण शाकटायन (पाल्यकीर्ति) यापनीय थे। इनकी र अमोघवृत्तिके कुछ उदाहरणोसे मालूम होता है कि यापनीय ५ आवश्यक, छेदसूत्र, नियुक्ति, और दशवकालिक आदि ग्रन्थोंका पठन पाठन होताथा,अर्थात् इन बातोमे वे श्वेताम्बरोके समानथे। वताम्बर मान्य जो आगमग्रन्थ है यापनीय सघ सभवत उन सभीको मानता किन्तु उनके आगमोंकी वाचना श्वेताम्बर सम्प्रदायमे मानी जानेवार वलभी वाचनासे शायद कुछ भिन्न थी। उनपर उसकी टीकाएँ भी, सकती है जैसा कि अपराजितसूरिकी दशवकालिक सूत्रपर टीका थी १ "कल्लाणे वरणयरे दुणिसए पच उत्तरे जादे।। जावणियसघभावो सिरिकलसादो हु सेवडदो ॥२९॥"

Loading...

Page Navigation
1 ... 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343