Book Title: Jain Dharm
Author(s): Sampurnanand, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Jain Sahitya

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Page 337
________________ ५२ Gari दीर्घ कालतक एक ही क्षेत्र में फरे कुठे हे अत. एका अंतर दूमरेपर हुआ हो, यह समय नहीं है । ३ जैनधर्म और मुसलमान धर्म उमा उदयमें हुआ हिन्दु बनादियों तक दोनों भारत के नाते है। और एक दूगरेपर अनर भी पड़ा है कि अगर तो जैनो की स्थापत्य और निकल पड़ा है। साथ गाय जेनोकी अगर गुगलमानों की कार भी है। किन्तु उसने हमारा प्रयोजन नहीं है। हमारा प्रयोजन तो धार्मिक नेत्रमे मुसलमान धर्मने जैनगम के कार जो प्रभाव डाला है उनसे है। मुसलमान धर्मका जैनधर्म के कार महत्रमा असर तो उनके अन्दर उत्पन्न होनेवाले मूर्तिपूजा विरोधी गम्प्रदायोरा जन्म लेना है । मुसलमानों के मूर्तिपूजा विरोध और मूर्ति राण्डनने ही लोकागाह वगैरहके चित्तमें इस भावनाको जन्म दिया, जिसके फलस्वरूप स्थानकवासी सम्प्रदाय और तारणपन्यकी स्थापना हुई । मुसलमान धर्मपर जैनधर्म का असर बतलाने हुए प्रो० ग्लेजनपने 'जैनिज्म' नामक ग्रन्यमें A furher. V. Kremer के एक निबन्धका हवाला दत हुए लिया है कि अरव कवि और दार्शनिक अबुल अलाने (९७३ - १०५८ ) अपने नैतिक- मिद्धाल जैनधर्म के प्रभावमं स्थापित किय थे। इसका वर्णन करते हुए मरने लिखा है- 'अबुल अला केवल अन्नाहार करता था और दूध तक नहीं पीता था। कारण, वह मानता था कि माताके स्तनमेंसे बच्चे के हिस्तेका दूध भी दुह लिया जाता है इसलिये इसे वह पाप मानता था । जहाँ तक बनता था वह आहार भी नही करता था । उसने मधुका भी त्याग कर दिया था। अंडा भी नही साता था । आहार और वस्त्रकी दृष्टिसे वह सन्यासियोकी तरह रहता था । पैरमें लकडीकी पावडी पहरता था । कारण, पशुको मारना और उसका चमड़ा काममें लाना पाप है । एक स्थानपर

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