Book Title: Jain Dharm
Author(s): Sampurnanand, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Jain Sahitya

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Page 329
________________ विविध सबसे प्रथम हम वैदिक साहित्यके क्रमिक विकासका परिचये . भारतीय दार्शनिकोंके साहित्यके आधारपर कराते है जो उपनिषदोंको ही सव दर्शनोंका मूल आधार बतलाते है। इतिहासज्ञोंने भारतीय दर्शनका काल विभाग इस प्रकार किया है-(१) वैदिक काल-१५०० ई० पू० से ६०० ई० पू० तक (२) पौराणिक गाथा काल-६०० ई० पू० से २०० ई. तक और (३) सूत्रकाल-२०० ई० से आगे। हिन्दू धर्मकी सबसे प्राचीन पोथी वेद है। वेद चार है ऋक, यजु, साम और अथर्व। पौराणिकोंका कहना है कि इन चारों वेदोंका संकलन वेदव्यासने यज्ञकी आवश्यकताओंको दृष्टिमें रखकर किया था। यज्ञानुष्ठानके लिये चार ऋत्विजोंकी आवश्यकता होती हैहोता, उग्दाता, अध्वर्यु तथा ब्रह्मा । होता मंत्रोंका उच्चारण करके देवताओंका आह्वान करता है । इस मत्र समुदायका सकलन ऋक्वेदमें है। उद्गाता ऋचाओंको मधुर स्वरसे गाता है इसके लिये सामवेदका संकलन किया गया है। यज्ञके विविध अनुष्ठानोंका सम्पादन करना अध्वर्युका कर्तव्य है। इसके लिये यजुर्वेद है। ब्रह्मा सम्पूर्ण योगका निरीक्षक होता है, जिससे अनुष्ठानमें कोई त्रुटि न रहे, उसमें विघ्न न आये। इसके लिये अथर्ववेद है। इस प्रकार यज्ञानुष्ठानको अच्छी तरहसे करनेके लिये भिन्न भिन्न वेदोंका सकलन भिन्न भिन्न ऋत्विजोंके लिये किया गया है। ___ वेदके तीन विभाग है-—मत्र, ब्राह्मण और उपनिषद् । मंत्रोंके समुदायको संहिता कहते है । ब्राह्मण ग्रन्थोंमें यज्ञ यागादिके अनुष्ठानका विस्तृत वर्णन है, इन्हें वेदमंत्रोंका व्याख्या ग्रन्थ कहा जाता है। ब्राह्मण ग्रन्योका अन्तिम भाग आरण्यक और उपनिषद् है, इनमें दार्गनिक तत्त्वोंका विवेचन है। उपनिषदोको ही वेदान्त कहते है। विषय विभागकी दृष्टिसे वेदके दो विभाग है- कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड । सहिता, ब्राह्मण और आरण्यकोंका अन्तर्भाव कर्मकाण्डमें

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