Book Title: Jain Dharm
Author(s): Sampurnanand, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Jain Sahitya

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Page 309
________________ विविष ३११. की पूजा की जाती है । इस ढगकी पूजाका आयोजन केवल इसी दिन होता है । इससे घर घरमे उस दिन जो मिष्टान्न बनता है उसका उद्देश्य भी समझमें आ जाता है । सलूनो या रक्षाबन्धन दूसरा उल्लेखनीय सार्वजनिक त्यौहार, जिसे जैनी मनाते है सलूनो या रक्षाबन्धन पर्व है । साधारणत इस त्यौहारके दिन घरोंमे मियाँ बनती है और ब्राह्मण लोग लोगों के हाथोमे राखियाँ, जिन्ह रक्षाबन्धन कहते है, वाँघकर दक्षिणा लेते है । राखी बांधते समय वे एक श्लोक पढते है जिसका भाव यह है - 'जिस राखीसे दानवोंका इन्द्र महावलि वलिराजा बांधा गया उससे मै तुम्हे भी बाँधता हूँ मेरी रक्षा करो और उससे डिगना नही । साथ ही साथ उत्तर भारतमे एक प्रथा और है । उस दिन हिन्दू मात्रके द्वारपर दोनों ओर मनुष्यके चित्र बनाये जाते है उन्हें 'सोन' कहते है । पहले उन्हें जिमाकर उनके राखी बांधी जाती है तब घरके लोग भोजन करते है । हमने अनेकों विद्वानों और पौराणिकोंसे इस त्यौहार के बारेमे जानना चाहा कि यह कब कैसे चला किन्तु किसी से भी कोई बात ज्ञात नही हो सकी । वलि राजाकी कथा वामनावतार के सिलसिले में आती है, किन्तु, उस से इस पर्व के बारेमें कुछभी ज्ञात नही होता । जैनपुराणोमे अवश्य एक कथा मिलती है जो सक्षेपमें इस प्रकार है किसी समय उज्जैनी नगरीमे श्रीधर्म नामका राजा राज्य करता था। उसके चार मत्री थे - बलि, बहस्पति, नमुचि और प्रहलाद । एक बार जैनमुनि अकम्पनाचार्य सात सौ मुनियोंके सघके साथ उज्जैन में पधारे। मंत्रियो के मना करनेपर भी राजा मुनियोंके दर्शनके लि गया । उस समय सब मुनि ध्यानस्थ थे । लौटते हुए मार्ग मे एक मुनिसे १. 'येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महावली | तेन त्वामपि बध्नामि रक्ष मा चल मा चल ।'

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