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जैनधर्म र्माण कराया। इसके समयमें आचार्य हेमचन्द्रने अनेक ग्रन्थोंकी चना की।
चालक्योका अस्त होनेपर १३ वी शताब्दीमे वघेलोका राज्य आ। इनके समयमें वस्तुपाल और तेजपाल नामक जैन मंत्रियोने बूके प्रसिद्ध मन्दिर वनवाये तथा शत्रुजय और गिरनारपर भी नमन्दिर बनवाये । इस प्रकार गुजरातमे भी राजाश्रय मिलनेसे जैनमकी बहुत उन्नति हुई।
इस तरह भगवान महावीरके पश्चात् विहार, उड़ीसा, तथा जरात वगैरहमे लगभग २००० वर्ष तक जैनधर्मका खूब अभ्युदय आ। इस कालमें अनेक प्रभावशाली जैनाचार्योने अपने उपदेशो और स्वार्थोके द्वारा जैनधर्मका प्रभाव फैलाया। अकेले एक समन्तभद्रने ही मस्त भारतमे घूम-घूम कर अनेक राजदरवारोको अपनी वक्तृत्व शक्ति और प्रखर तार्किक बुद्धिसे प्रभावित किया था । अन्य प्रान्तोमे भी लाये जानेवाले जैन स्मारकोसे जैनधर्मके विस्तारका सबूत मिलता है।
५ राजपूतानेमें जैनधर्म । स्व. ओझाजीने अपने राजपूतानेके इतिहासमे लिखा है कि मजमेर जिलेके वर्ली नामक गांवमें वीर सम्वत् ८४ (वि० स० २८६ पूर्व-ई० स० ४४३ पूर्व) का एक शिलालेख मिला है जो जिमेरके म्यूजियममे सुरक्षित है। उस परसे यह अनुमान होता है क लशोकसे पहले भी राजपूतानेमे जैनवर्मका प्रसार था। जैन ग्सकोका यह मत है कि राजा सम्प्रतिने, जो अशोकका वराज था, जैनमिकी खूब उन्नति की और राजपूताना तथा उसके आसपासके प्रदेगमे से उतने अनेक जैनमन्दिर बनवायें। वि० स० की दूसरी शताब्दीमे ने मधुराके ककालो टीलाके जैन स्तूपसे तथा वहीके कुछ अन्य स्थानोले गप्न प्राचीन शिलालेखो और मूनियोसे मालूम होता है कि उन ‘मय राजपूतानेमे भी जैनधर्मका अच्छा प्रचार था।
.प्र.ग.प.० १०-११॥